श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
देखों, वे अविवेकी लोग कामनायुक्त होकर और अपने चित्त में केवल भोग को ही रखकर सब कर्मों का सम्पादन करते हैं। अनेक प्रकार के कर्मों को करते समय वे लोग विधि का लोप नहीं होने देते और बड़ी निपुणता के साथ धर्म का अनुष्ठान सम्पन्न करते हैं।[1]
किन्तु वे एक ही बुराई करते हैं, वह यह कि वे अपने चित्त में स्वर्गसुख को रखकर उस यज्ञपुरुष आदिनारायण को ही भूल जाते हैं जो यज्ञ का भोक्ता है। जिस प्रकार पहले कपूर की राशि एकत्रित करके फिर उसमें आग लगा दी जाय अथवा मिष्टान्न बनाकर उसमें कालकूट विष मिला दिया जाय अथवा दैवयोग से प्राप्त किया हुआ अमृतकुम्भ पैर की ठोकर से लुढ़का दिया जाय, उसी प्रकार नासमझ कर्मकाण्डी फल की अभिलाषा में हाथ लगे हुए धर्म का विनाश ही करते हैं। जब कष्ट झेलकर और श्रम करके पुण्य का सम्पादन किया जाय, तब फिर संसार की ही याचना क्यों की जाय? किन्तु इन नासमझों की समझ में यह नहीं आता कि ऐसी किस वस्तु का सम्पादन किया जाय जो हमें अब तक अप्राप्त है। जैसे भली प्रकार से तैयार किये हुए भोजन को कुछ कीमत लेकर बेच दिया जाय, बस ठीक वैसे ही ये अविवेकी लोग सुखभोगरूपी मूल्य के लिये अपना धर्म बेच डालते हैं। इसलिये हे पार्थ! मैं कहता हूँ कि जो लोग वेदों के अर्थवाद में ही सदा उलझे रहते हैं, उनके मन में दुर्बुद्धि ही निवास करती है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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