श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
तत्पश्चात् भगवान् ने कहा- “हे धनंजय! वह ब्रह्म ही इस वृक्ष का ऊर्ध्व है और इसी वृक्ष के कारण उसमें वह ऊर्ध्वता मिली हुई है। यदि यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो जो एकरूप, अद्वैत, कैवल्यतत्त्व है, उसमें ऊर्ध्व, मध्य और अधः का कोई भेद हो ही नहीं सकता, जो ऐसा नाद है, जो कभी श्रवेणिन्द्रियों से श्रवण ही नहीं किया जा सकता, जो ऐसी सुगन्ध है, जिसका घ्राणेन्द्रिय के द्वारा कभी अनुभव भी नहीं किया जा सकता, जो ऐसा आनन्द है, जो बिना विषयों का सेवन किये हुए ही मिलता है, जो अपने इस पार भी और उस पार भी, आगे भी और पीछे भी केवल स्वयं ही है, जो सदा दृष्टि से ओझल रहता है और बिना देखने वाले के ही दृष्टिपथ पर आता है, जो उपाधि के सम्बन्ध से ही नाम-रूपात्मक विश्व होता है, जो ज्ञाता और ज्ञान वस्तु के बिना ही ज्ञान है, जो सुख से परिपूर्ण होने पर भी शून्य गुण आकाश ही है, जो न कार्य है और न कारण है, जो न द्वैत है और न अद्वैत है, जो केवल स्वयं ही और आत्मस्वरूप रहता है, वही अद्वितीय तत्त्व इस संसाररूपी वृक्ष का ऊर्ध्व है। अब तुम यह सुनो कि इस ऊर्ध्व जड़ में अंकुर किस प्रकार उत्पन्न होते हैं वन्ध्यासुत के वर्णन की भाँति जिसे माया नाम से सम्बोधित करते हैं, जो सत् भी नहीं है और असत् भी नहीं है, जो विचार के समक्ष नहीं टिकता, परन्तु इतना होने पर भी जिसे अनादि नाम से पुकारते हैं, जो भेदभाव का सन्दूक है, जिसमें ये अनेक लोग ठीक वैसे ही रहते हैं, जैसे आकाश में मेघ रहते हैं, जो समस्त साकार वस्तुरूपी वस्त्र की असली तह है, जो संसार-वृक्ष का सूक्ष्म बीज है, जो प्रपंच का जन्मस्थान तथा मिथ्या ज्ञान की प्रकाशमान ज्योति है, वह माया उस निर्गुण ब्रह्म में इस प्रकार रहती है कि मानो है ही नहीं और फिर वह जो-जो व्यवहार करती है, वह सब उस ब्रह्म के तेज के प्रभाव से ही करती है। |
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