ज्ञानेश्वरी पृ. 54

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा: ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यासि लाघवम् ॥35॥

इसके अलावा हे अर्जुन! एक बात और है जिस पर तुमने विचार ही नहीं किया। तुम तो यहाँ बड़ी तैयारी से युद्ध के लिये आये हो। अब यदि तुम दयावृत्ति की दुहाई देकर यहाँ से पीछे हट जाओगे, तो फिर तुम्हीं बतलाओ कि क्या तुम्हारी इस दयावृत्ति का असर तुम्हारे इन दुरात्मा वैरियों के मन पर भी पड़ेगा?[1]

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता: ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम् ॥36॥

यह सब-के-सब तो यही कहेंगे कि अर्जुन हम लोगों से भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ। अब तुम्हीं बतलाओ कि लोगों का ऐसी बातें करना क्या कुछ अच्छा होगा? यदि तुम इसका उत्तर ‘हाँ’ में देकर यह कहो कि यह भी अच्छी ही बात होगी, तो फिर हे धनुर्धर! वे सब लोग जो कष्ट सह करके और अवसर पड़ने पर अपने प्राण की आहुति देकर अपनी कीर्ति में वृद्धि करते हैं, वह ऐसा क्यों करते हैं? वही कीर्ति तुम्हें अनायास ही प्राप्त हुई है। जैसे यह आकाश अपने विस्तृत स्वरूप के कारण अनुपम है, वैसे ही तुम्हारी कीर्ति भी अपार और अनुपम है। तुम्हारे गुण त्रिभुवन में सर्वश्रेष्ठ हैं। दूसरे-दूसरे देशों के राजे-महाराजे भी तुम्हारी कीर्ति का गान चारणों (भाटों)-की तरह करते हैं और वह कीर्तिगान सुनकर यम आदि भी भयभीत हो जाते हैं। देखो, तुम्हारी महिमा गंगा-प्रवाह की भाँति निर्मल और पूर्ण है। किंबहुना तुम्हारी महिमा ने ही सारे विश्व के शूरवीरों को न केवल क्षात्रधर्म का पाठ पढ़ाया’ अपितु उन्हें जानकार भी बना दिया है। अतुलित शौर्य सुनकर विपक्ष के सब-के-सब योद्धा लोग अपने जीवन की आशा खो चुके हैं। जैसे सिंह की दहाड़ सुनकर मत वाले हाथी को यह ज्ञात होने लगता है कि यह प्रलय काल का गर्जन है, ठीक वैसे ही इन सब कौरवों पर तुम्हारा दबदबा बना हुआ है। हे भाई अर्जुन! जैसे वज्र को पर्वत अथवा गरुड़ को सर्प अपना काल मानते हैं, ठीक वैसे ही ये कौरव भी तुम्हें सदा अपना काल ही मानते हैं, किन्तु यदि आज तुम युद्ध से भाग खड़े होगे, तो तुम्हारी सारी-की-सारी जमी-जमायी धाक जाती रहेगी और ऊपर से मानहानि भी होगी। बस इतना ही नहीं, जब तुम पीछे हटने लगोगे, तब ये कौरव तम्हें पीछे हटने भी नहीं देंगे और तुम्हें रोककर तुम्हारा तिरस्कार भी करने लगेंगे। तुम्हारे मुँह पर ही तुम्हारी व्यर्थ की निन्दा करेंगे। तब उस समय तुम्हारा हृदय ही विदीर्ण हो जायगा। फिर इसी समय तुम पूरी सामर्थ्य के साथ क्यों न लड़ो? यदि इन कौरवों पर तुमने विजय हासिल कर ली, तो फिर तुम सुखपूर्वक सारी पृथ्वी का राज्य भोगना।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (206-207)
  2. (208-219)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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