ज्ञानेश्वरी पृ. 513

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

इस प्रकार भगवान् ने पार्थ आत्म और अनात्म की सारी व्यवस्था अच्छी तरह से बतला दिया। जैसे एक कलश का पानी किसी अन्य कलश में उड़ेला जाता है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना सारा आत्मज्ञान अर्जुन के हवाले कर दिया। परन्तु आखिर यहाँ प्रदाता कौन है और ग्रहीता कौन है? क्योंकि नर अर्थात् अर्जुन भी नारायण ही हैं और इसलिये इन दोनों में किसी प्रकार का भेद ही नहीं है। फिर श्रीकृष्ण भी अर्जुन को अपनी विभूति ही मानते हैं, परन्तु छोड़ो इन सब बातों को। जब इन सब बातों की कोई चर्चा ही नहीं है तो फिर मैं ही क्यों इसकी चर्चा करूँ? कहने का आशय यह है कि इस प्रसंग में श्रीकृष्ण ने अपना ज्ञान सर्वस्व ही अर्जुन को सौंप दिया; परन्तु अर्जुन के मन को तृप्ति नहीं मिली। उसकी ज्ञान-श्रवण की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। जैसे तेल भर देने पर दीपक का प्रकाश और भी अधिक हो जाता है, वैसे ही इस श्रवण से अर्जुन की उत्सुकता और भी तीव्र हो गयी। जब भोजन परोसने वाली गृहिणी चतुर, सुघड़ तथा उदार होती है और भोजन ग्रहण करने वाले भी भोजन के रसज्ञ होते हैं, तब भोजन परोसने वाली के हाथ भी तथा खाने वालों के हाथ भी बराबर चलते रहते हैं। ठीक वही अवस्था इस समय भगवान् की हुई थी। अर्जुन की एकाग्रता को देखकर भगवान् को व्याख्यान देने की चौगुनी स्फूर्ति हो आयी। जैसे अनुकूल वायु के बहने पर बहुत-से मेघ आकाश में इकट्ठे हो जाते हैं अथवा चन्द्र दर्शन से जैसे समुद्र में ज्वार आती है, वैसे ही श्रोताओं के उत्साहित होने पर वक्ता को भी स्फूर्ति होती है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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