श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । तुम अब भी विचार क्यों नहीं करते? तुम क्या सोच रहे हो? जिस स्वधर्म से तुम्हारा उद्धार होने वाला है, तुम उसी स्वधर्म को भुला बैठे। यदि यहाँ इन कौरवों का नाश हो जाय या तुम्हीं को कुछ हो जाय या इस युग का अन्त ही क्यों न हो जाय, किन्तु फिर भी हमारा जो स्वधर्म है, उसको छोड़ना किसी भी कीमत पर समीचीन नहीं है। यदि तुम स्वधर्म को छोड़ दोगे तो क्या तुम्हारी इस अवसर की कृपालुता तुम्हारा उद्धार कर देगी? इसलिये यह स्वधर्म सर्वथा त्यागने योग्य नहीं है। हे अर्जुन! यदि तुम्हारा चित्त इस समय करुणा से ओत-प्रोत हो गया हो तो ऐसा होना ही इस युद्ध के समय सर्वथा अनुचित है। गोदुग्ध बहुत रुचिकर होता है; किन्तु फिर भी यह नहीं कहा गया है कि ज्वर से पीड़ित किसी व्यक्ति को दूध का पथ्य दो। कारण कि यदि वह विषम ज्वर से ग्रस्त किसी मरीज को दिया जाय तो वह दूध विष तुल्य ही हो जाता है। इसी प्रकार प्रसंगेतर मनमाना कर्म करने से स्वहित का ही नाश होता है। इसलिये हे पार्थ! अब तुम सावधान हो जाओ। तुम व्यर्थ क्यों व्याकुल होते हो? जिस स्वधर्म के अनुसार व्यवहार करने पर तीनों कालों में भी कोई दोष नहीं लगता, तुम उसी स्वधर्म की ओर देखो। जैसे प्रशस्त मार्ग पर चलने से कभी कोई हानि नहीं होती या जैसे दीपक के सहारे चलने में कभी कहीं डगमगाकर गिरना नहीं पड़ता, वैसे ही हे पार्थ! स्वधर्म का आचरण करने से सहज ही सब कामनाओं की पूर्ति होती है। इसलिये तुम्हें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि तुम-जैसे क्षत्रियों के लिये तो युद्ध के सिवाय और कुछ करना कभी उचित नहीं है। तुम सब प्रकार से शंका रहित होकर खूब डँटकर युद्ध करो! अब लम्बी-चौड़ी बातें बहुत हो चुकीं; जो बात एकदम प्रत्यक्ष हो, उसका व्यर्थ विस्तार क्यों किया जाय?[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (180-190)
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