ज्ञानेश्वरी पृ. 500

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

शब्द-सृष्टि की वृद्धि, नाम-रूपात्मक जगत् की सृष्टि और समस्त प्रपंचों की रचना भी निरन्तर यही करती रहती है। इसी से कला, विद्या, इच्छा, ज्ञान और क्रिया इत्यादि की उत्पत्ति होती है। नादरूपी सिक्के ढालने वाली टकसाल यही है और यही चमत्कार का मन्दिर भी है। किंबहुना यह समस्त जगत् इसी के हाथ का खिलौना है। उत्पत्ति और प्रलय मानो इस प्रकृति की प्रातः काल और सांय काल की सन्ध्या है। तात्पर्य यह कि यह प्रकृत्ति एक अद्‌भुत मोहिनी हे। यह अद्वैत की जोड़ीदार है और निःसंगों की सम्बन्धी है, क्योंकि यह शून्य में गृह-निर्माण कर उसी में सानन्द निवास करती है। इसकी सामर्थ्य का विस्तार इतना अधिक है कि जिस पुरुष का आकलन करना सम्भव नहीं है उसी पुरुष को यह अपने अधीन करके रखती है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो उस पुरुष में कुछ भी नहीं है और वह सर्वथा उदासीन रहता है। पर यह प्रकृति स्वयं ही उसका सब कुछ बन जाती है। यह प्रकृति ही उस स्वयंभू की उत्पत्ति, उस निराकार की मूर्ति तथा स्थिति होती है। उस वासनारहित की वासना स्वयं का संतोष कुलरहित की जाति तथा गोत्र, अनामी का नाम, अजन्मा का जन्म, निष्कर्मी का कर्म, निर्गुण का गुण, चरणहीन के चरण, करणहीन के कारण, नेत्रहीन के नेत्र, अभाव का भाव, अवयवहीन के अवयव, यहाँ तक कि उस पुरुष का सब कुछ यह प्रकृति ही स्वतः बन जाती है। इस प्रकार इसकी व्यापकता के कारण वह विकारशून्य पुरुष भी विकारों से लिप्त हो जाता है। इस पुरुष में जो पुरुषत्व रहता है उसका एक मात्र कारण यह प्रकृति ही है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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