श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
गीता का अर्थ करना कितना दुरुह कार्य है, इसे बिना सोचे-समझे मेरे मन ने निश्चय ही धृष्टता की है; नहीं तो सूर्य के तेज के समक्ष भला खद्योत की क्या सामर्थ्य है? मुझ-सदृश ज्ञानहीन का इस कार्य में तत्पर होना ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार किसी टिट्टिभ का अपनी चोंच से अगाध समुद्र को मापने का प्रयत्न। यदि कोई आकाश को ढँकना चाहे तो उसे उस आकाश से भी अधिक बड़ा होने की महती आवश्यकता होती है और जब मैं इस बात को सोचता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि यह कार्य जो मैंने अपने हाथ में लिया है, वह मेरी क्षमता के बाहर ही है। जिस समय भगवान् शंकर जी गीता के अर्थ की महत्ता का विचार कर रहे थे, उस समय माता पार्वती ने कुतूहलवश भगवान् शिव से प्रश्न किया था आप हर समय किसकी विचारणा करते हैं। उस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् शिव ने कहा था-“हे भवानी! तुम्हारे नित्य-नूतन स्वरूप की ही भाँति यह गीता-तत्त्व सदा नवीन एवं अज्ञेय है।” वेद के अर्थ का विस्तार जिस आदिपुरुष के खर्राटों से हुआ है, उसी सर्वेश्वर ने स्वयं इस गीता के रहस्य को भी बतलाया है। अत: जो कार्य इतना अपार हो, गंभीर हो और जिसमें वेदों की मति भी कुण्ठित हो जाती हो, उसमें मुझ-जैसे मतिमंद व्यक्ति का भला कहाँ ठिकाना लग सकता है। इस अपार गीता-तत्त्व का आकलन करना भला कैसे सम्भव है? इस तीव्र एवं दिव्य तेज को (सूर्य को) भला कौन अधिक प्रकाशित कर सकता है! मसक की मुट्ठी में भला आकाश किस प्रकार समा सकता है? किन्तु ऐसी स्थिति में भी मुझे एक ऐसा आश्रय प्राप्त है जिसके सहयोग से मैं स्वयं को सामर्थ्यवान् मानता हूँ और मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि वह आश्रय यही है कि श्रीगुरुदेव मेरे अनुकूल हैं। यद्यपि सामान्यतः मैं मूर्ख और अज्ञानी हूँ, किन्तु फिर भी सन्तों का कृपारूपी दीपक तो मेरे सामने तेजपुंज रूप से जल रहा है। लोहे को सोना बनाने की सामर्थ्य केवल पारस में ही है और केवल अमृत ही मृतक को जीवनलाभ दे सकता है। यदि स्वयं वाणी देवी की कृपा हो जाय तो मूक भी वाचाल हो सकता है; यह केवल वस्तु सामर्थ्य है अर्थात् (उस परमात्मा की शक्ति से संभव होता है) अतः इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है अथवा कामधेनु जिसकी माता हो, भला उसे किस वस्तु का अभाव हो सकता है! इसीलिये मैं इस गीता-ग्रन्थ का प्रवचन करने को प्रवृत्त हुआ हूँ। |
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