श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
हे किरीटी! यह ब्रह्मवस्तु भी सारे विश्व को ठीक उसी प्रकार व्याप्त किये रहती है, जिस प्रकार अवकाश को आकाश व्याप्त कर लेता है अथवा पट के रूप में भासमान होकर तन्तु उस पट को व्याप्त किये रहता है। जल के रूप में रसतत्त्व जैसे जल में रहता है, दीपक के रूप में प्रकाश-तत्त्व जैसे दीपक में रहता है, कपूर के रूप में गन्ध-तत्त्व जैसे कपूर में रहता है, शरीर के रूप में कर्म-तत्त्व जैसे शरीर में रहता है, किंबहुना हे पाण्डव! स्वर्ण-कण में जैसे स्वर्ण ही रहता है, वैसे ही वह ब्रह्म-वस्तु भी सर्वस्वरूप होकर सबमें बाह्याभ्यन्तर व्याप्त रहती है। पर स्वर्ण जब तक कण के रूप में रहता है, तब तक हम उसे स्वर्ण का कण ही सम्बोधित करते हैं; पर जब उसका वह कण वाला रूप समाप्त हो जाता है तब वह कण ही स्वर्ण हो जाता है अथवा प्रवाह का रूप भले ही टेढ़ा-मेढ़ा हो, पर जल फिर भी सदा सरल ही रहता है अथवा जब अग्नि से तप्त लौह रक्त वर्ण का हो जाता है, तब भी अग्नि कभी लौह नहीं बन पाती। घर के गोल आकार के कारण उसमें स्थित आकाश यानी घटाकाश भी गोल ही दिखायी देता है और मठ तथा झोपड़ी की ही चौकोर बनावट के कारण उसमें का आकाश चौकोर दिखायी देता है, परन्तु उक्त दोनों आकार वास्तव में आकाश का नहीं होता। इसी प्रकार यदि ब्रह्म-वस्तु में किसी तरह का विकार दिखायी दे तो भी वास्तव में वह कभी विकारयुक्त नहीं होता। हे धनंजय! देखने में ऐसा मालूम पड़ता है कि वह ब्रह्मवस्तु मन इत्यादि इन्द्रियों और सत्त्व इत्यादि त्रिगुणों के कारण अलग-अलग आकारों के रूप में दृष्टिगोचर होती है, पर जैसे गुड़ की मिठास उसके भेली वाले आकार में नहीं होती वैसे ही गुड़ तथा इन्द्रियाँ वास्तव में ब्रह्म-तत्त्व नहीं है। जिस समय तक दूध का अपना असली स्वरूप बना रहता है, उस समय तक घृत भी उसी दूध के ही स्वरूप में रहता है, पर घृत भी वही है, जो दूध है, ऐसा कोई नहीं कह सकता। |
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