श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
जो अपने चित्त में किसी प्रकार के फल की आशा रखकर मेरी भक्ति वैसे ही करता है, जैसे कोई द्रव्य बटोरने के उद्देश्य से वैरागी का वेष धारण करता है अथवा जैसे कोई व्यभिचारिणी स्त्री अपने प्रेमी के साथ पास जाने की सुविधा पाने के लिये अपने पति का सन्तोष करके और उसका मन भरकर उसे झूठा विश्वास दिलाने के लिये ऊपर से अपना शुद्ध व्यवहार और आचरण दिखलाती है, इसी प्रकार हे अर्जुन! जो ऊपर से दिखलावे के लिये तो मेरी भक्ति करता है, पर वास्तव में जिसकी समग्र दृष्टि विषय सुखों को सम्पादित करने की ओर रहती है और जब ऐसी भक्ति करने पर अभिलषित विषय प्राप्त नहीं होता तब जो यह कहकर तत्क्षण ही मेरी भक्ति का परित्याग कर देता है कि यह समस्त भक्ति व्यर्थ है, जो वैसे ही नित्य नये-नये देवी-देवताओं की आराधना करता है जैसे कोई किसान नित्य नयी-नयी जमीन लेकर जोतता है और अपने हर एक नये देवता की अपने पुराने देवता की ही भाँति सेवा करता है, जो किसी नयी गुरु सम्प्रदाय की तड़क-भड़क देखकर उसी के चक्कर में पड़ जाता है तथा उसी का मन्त्र भी स्वीकार कर लेता है और दूसरों को क्षुद्र समझकर उनका ग्रहण नहीं करता, जो जीव मात्र के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार करता है, परन्तु वृक्ष तथा पत्थर इत्यादि वस्तुओं को देवता समझकर उनकी पूजा-अर्चना करता है और इस प्रकार जिसकी अनन्य श्रद्धा किसी पर नहीं होती, जो मेरी मूर्ति को प्रस्तुत करता है, पर उस मूर्ति को अपने गृह में स्थापित करके स्वयं अन्य देवों के दर्शनार्थ निकल जाता है, जो निरन्तर मेरा पूजन करता है, परन्तु मंगल कार्यों में उन देवताओं का अर्चन करता है और कुछ विशेष अवसर (पर्वकाल) पर अन्य देवी-देवताओं की आराधना करता है, जो गृह में तो मेरी मूर्ति स्थापित करता है, पर व्रत दूसरे देवताओं का करता है और फिर पितृपक्ष में अपने पितरों का भक्त हो जाता है, जो एकादशी के दिन मेरा जितना मान करता है, उतना ही श्रावण शुक्ल पंचमी के दिन नागों का भी सम्मान करता है। |
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