श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
यद्यपि उसके शरीरांग दुर्बल होते जाते हैं, तेज क्षीण होता जाता है, मस्तक काँपने लगता है, दाढ़ी सफेद हो जाती है और ग्रीवा हिलने लगती है, पर फिर भी वह अपनी भाषा का विस्तार करता ही जाता है। जैसे अन्धे को सामने से आने वाला व्यक्ति तब तक पता नहीं चलता, जब तक वह उसकी छाती पर नहीं आ जाता अथवा आलसी व्यक्ति उस समय तक आनन्द से पड़ा रहता है; जिस समय तक घर में लगी हुई आग की चिनगारियाँ आकर उसके मुख पर गिरने नहीं लगती हैं, वैसे ही जिस व्यक्ति को वर्तमान की युवावस्था का भोग करते समय भविष्य में आने वाला बुढ़ापा दृष्टिगत नहीं होती। हे धनुर्धर! वह व्यक्ति अज्ञान का ही पुतला होता है, जो किसी अशक्त और पंगु को देखकर अभिमान से भरकर उसे चिढ़ाने लगता है, परन्तु जो यह नहीं समझता कि कल मेरी भी यही दशा होगी और मृत्यु-सूचक बुढ़ापे के लक्षण शरीर में दृष्टिगोचर होने पर भी जिसका तारुण्य काल का भ्रम नहीं मिटता, उस व्यक्ति को अज्ञान का जन्मस्थान ही समझना चाहिये। हे सुभट! अज्ञान का कुछ और भी लक्षण सुनो। जैसे कोई पशु किसी ऐसे जंगल जाकर चर आता है, जिसमें व्याघ्र का निवास भी रहता है और जो सौभाग्य से किसी प्रकार व्याघ्र से बचकर लौट आता है और इसी भरोसे पर वह फिर उसी जंगल में चरने के लिये जाता है अथवा जैसे कोई व्यक्ति एक बार सर्प के बिल में रखा हुआ द्रव्य सर्प-दंश से कसी प्रकार बचकर उठा लाता है और तब वह ढिंढोरा पीटने लगता है कि उस बिल में सर्प है ही नहीं अथवा यदि वह है भी तो काटता ही नहीं, वैसे ही जो एक-दो बार कुपथ्य करके भी यह देखता है कि मेरा शरीर स्वस्थ है और इसीलिये जो रोग का अस्तित्व ही नहीं मानता अथवा जो अपने शत्रु को सुषुप्तावस्था में देखकर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि अब तो मेरी शत्रुता सदा-सदा के लिय समाप्त हो गयी और अन्त में परिवार समेत अपने प्राण गँवा बैठता है अथवा जो व्यक्ति तब तक रोग के प्रति चिन्ता मुक्त रहता है, जब तक उसका आहार तथा निद्रा नियमित रहती है तथा रोग उसके देह में पूरी तरह से अपना डेरा नहीं डाल लेता, वही अज्ञानी होता है। वह अपनी स्त्री आदि के साथ ज्यों-ज्यों अपनी धन-सम्पत्ति के द्वारा अधिक-से-अधिक विषयों को सम्पादित करता जाता है, त्यों-त्यों उसकी धूल से वह और भी अधिक दृष्टिहीन होता जाता है। |
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