ज्ञानेश्वरी पृ. 471

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

जिसे अपने गुरुकुल का नाम लेते ही लज्जा होती है, जिसे गुरु-भक्ति रुचिकर नहीं लगती, जो गुरु से विद्या प्राप्त करके उल्टे उन्हीं से अपनी विद्या का अभिमान करता है, मुँह से उसका नामोच्चारण करना मानो शूद्रान्न सेवन करने के समान होता है; पर इन लक्षणों को बतलाने के लिये उसका नाम तो लेना ही पड़ता है। अब मैं गुरु-भक्तों का नाम लेकर इस दूषित जिह्वा का प्रायश्चित करता हूँ, क्योंकि गुरु-भक्तों का नाम सूर्य की भाँति चतुर्दिक् प्रकाश का विस्तार करता है। गुरु से द्रोह करने वाले व्यक्तियों का नाम लेने से पाप का जो भार आ पड़ा है, उस भार से वाणी को मुक्त करने के लिये इतना प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। आज तक गुरु से द्रोह करने वालों को नाम लेने से जितना पाप हुआ होगा, वह सब गुरु-भक्तों के नामों को लेने से एकदम धुल जायगा।

हे अर्जुन! अब मैं तुमको अज्ञान के दूसरे लक्षण बताता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। जो सदा विचलित और अस्थिर रहता है, जो सदा संशय से भरा रहता है, जो व्यक्ति बाह्याभ्यन्तर जंगल में स्थित उस कुएँ की भाँति घृणित और त्याज्य रहता है, जिसके ऊपर तो झाड़-झंखाड़ और काँटे होते हैं तथा जिसके अन्दर सिर्फ जो व्यक्ति द्रव्य के लोभ में पड़कर अपने और पराये का ठीक उसी तरह कोई विचार नहीं करता, जिस तरह भूख से व्याकुल कुत्ता खुले और ढके हुए अन्न का कोई विचार नहीं करता और जहाँ जो चीज मिलती है, वह सब हजम कर जाता है, जो कुत्ते की भाँति नीति और अनीति कुछ भी नहीं देखता और जब जहाँ जी चाहा, वहीं रमण करने लग जाता है, जो कर्तव्य-कर्म का समय चूक जाने पर अथवा नित्य और नैमित्तिक कर्मों के छूट जाने पर भी मन में जरा-सा भी दुःखी नहीं होता, पापाचरण करनें में जिसे कुछ भी लज्जा नहीं जान पड़ती। पुण्य के विषय में जो सदा निरुत्साही बना रहता और जिसके मन में सदा संशय बना रहता है, उसे स्पष्ट रूप से अज्ञान का पुतला ही समझना चाहिये।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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