ज्ञानेश्वरी पृ. 462

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

इस प्रकार जो व्यक्ति वृद्धावस्था के इन लक्षणों का ध्यान युवावस्था में ही कर लेता है और तब उन सब लक्षणों से अपने मन में घृणा करने लगता है, वही ज्ञानी है। वह यही सोचता है कि अन्ततः शरीर की दुर्दशा इसी प्रकार की होगी तथा शारीरिक भोगों को भोग चुकने के बाद इस शरीर का नाश हो जायगा, तब आत्मकल्याण के लिये मेरे पास बच ही क्या जायगा? इसीलिये जब तक श्रवणेन्द्रियाँ अपना काम करना बन्द न करें, उससे पहले ही सब कुछ श्रवण कर लेना चाहिये और शरीर के जवाब देने के पहले ही सब जगह की यात्रा इत्यादि कर लेनी चाहिये। जब तक नेत्रों में देखने की सामर्थ्य है, तब तक जो कुछ देखते बने, वह देख लेना चाहिये और जब तक वाणी मूक (गूँगी) न हो, तब तक मधुर वचन बोल लेना चाहिये। हमें यह अच्छी तरह से मालूम है कि आगे चलकर हमारे हाथ लूले ही हो जायँगे; लेकिन हाथों के लूले होने से पहले ही दान इत्यादि पुण्य-कर्म इन हाथों से करा लेने चाहिये। आगे चलकर जिस समय ऐसी हीन अवस्था आवेगी, उस समय चित्त पागलों की भाँति हो जायगा।

अत: ऐसी अवस्था आने से पहले ही शुद्ध ज्ञान का संग्रह कर लेना आवश्यक है। यदि आज हमें यह ज्ञात हो जाय कि कल चोर आकर हमारी सारी सम्पत्ति लूट ले जायँगे, तो अच्छा यही है कि आज ही हम उसकी रक्षा की व्यवस्था कर लें। दीपक के बुझने से पूर्व ही उसे हवा से बचाने के लिये ढक देना चाहिये। जिस समय वृद्धावस्था आवेगी, उस समय यह सारा शरीर व्यर्थ हो जायगा, इसलिये आज से ही इस शरीर से एकदम निर्लिप्त होकर रहना आरम्भ कर देना ही उचित है। जिसे इस बात की जानकारी है कि आगे मार्ग अवरुद्ध है अथवा रक्षा का प्रबन्ध नहीं है या यह देखता है कि आकाशमण्डल में मेघ घिर रहे हैं, लेकिन फिर भी जो इन सब बातों की ओर ध्यान न देकर घर से बाहर निकल पड़ता है, उसका घात अवश्यम्भावी है। इसी प्रकार जिस समय वृद्धावस्था आवेगी, उस समय यह शरीर धारण करना एकदम व्यर्थ हो जायगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति शतायु भी हो तो भी यह समझ में नहीं आता कि उसके इतनी दीर्घजीवी होने में क्या लाभ है। जिन तिलों के डंठलों में से एक बार झाड़े जाने के कारण तिल निकल जाते हैं, वे डंठल यदि फिर झाड़े जायँ तो उनमें से तिल नहीं निकलते।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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