ज्ञानेश्वरी पृ. 452

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

हे किरीटी! गुरुदेव के चलने के समय उनके पैरों से धूलि के जो कण पीछे की ओर उड़ते रहते हैं, उनमें का एक कण भी जो मोक्ष सुख के बदले में ग्रहण करने के लिये लालायित रहता है, वही वास्तव में गुरु का सच्चा सेवक, भक्त तथा शिष्य होता है। पर इन सब बातों का कहाँ तक विस्तार किया जाय। वास्तव में गुरु-भक्ति की कोई सीमा ही नहीं है। प्रसंगवश गुरु-भक्ति का इतना विस्तार करना पड़ा है। पर बहुत विस्तार हो चुका। हे किरीटी! जिसके चित्त में ऐसी गुरु-भक्ति की लालसा होती है, जिसमें इसके लिये प्रेम और उत्कण्ठा होती है, जिसे गुरु की सेवा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रुचता, वही व्यक्ति तत्त्व-ज्ञान का आधार है और उसी के कारण ज्ञान का अस्तित्व होता है इतना ही नहीं, वह ज्ञानी भक्त साक्षात् देवता ही होता है। वास्तव में ऐसे भक्त के पास ज्ञान अपने सब द्वार मुक्त करके रहता है और उसका ज्ञान इतना अधिक रहता है कि वह पूरे विश्व को भरने के बाद भी अवशिष्ट रहता है।” हे श्रोतावृन्द! इस प्रकार की गुरु-सेवा के प्रति मेरे अन्तःकरण में उत्कट उत्कण्ठा है और यही कारण है कि मैंने इसका इतना अधिक विस्तार किया है कि अन्यथा मैं हाथ होने पर भी लूला हूँ, भजन के विषय में अन्धा हूँ और गुरु-सेवा के काम में पंगुलों से भी बढ़कर पंगुल हूँ। गुरु के माहात्म्य-वर्णन में मैं गूँगा हूँ और आलसी हूँ। पर फिर भी मेरे मन में जो सच्चा गुरु-प्रेम है, उसी के बल पर मुझे इस विषय का इतना विस्तार करना पड़ा है। मैं ज्ञानदेव आप लोगों से यही बात कहता हूँ।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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