ज्ञानेश्वरी पृ. 449

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

अब मैं यह बतलाता हूँ कि वहअपने आराध्य देव गुरु की प्रत्यक्ष सेवा किस प्रकार करता है। उसकी सदा यही लालसा रहती है कि मैं अपने गुरुदेव की ऐसी सेवा करूँ कि वे प्रसन्न होकर मुझे वर माँगने की आज्ञा दें। उसके मन में यह विचार आता है कि जब गुरुदेव सचमुच इस प्रकार प्रसन्न हो जायँ, तब मैं उनसे यह विनम्र प्रार्थना करूँ कि हे देव! मेरी अभिलाषा यही है कि एकमात्र मैं ही आपका सारा परिवार बन जाऊँ और आपके उपयोग में आने वाली जितनी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूप भी मैं ही धारण करूँ और जब मैं गुरुदेव से इस प्रकार का वर माँगूँ, तब वे प्रसन्न होकर तथास्तु कहें और मैं ही उनका पूरा-का-पूरा परिवार बन जाऊँ। उसका भाव यह है कि जब गुरुदेव की सेवा की सारी चीजें मैं ही बन जाऊँगा, तब मुझे गुरु-सेवा का वास्तविक कौतुक देखने को मिलेगा। वैसे तो गुरुदेव सभी की माता हैं, पर मैं उन पर ऐसा दबाव डालूँगा कि वे एकमात्र मेरी ही माता होकर रहें। उनके प्रेम को भी मैं इस प्रकार बेधूँगा कि मेरे साथ एक पत्नी व्रत वाला आचरण करें और उनसे क्षेत्र संन्यास के व्रत का अनुष्ठान इस प्रकार कराऊँगा कि उनका प्रेम अनवरत मेरी ही सीमा में रहे। जैसे नित्य प्रवहमान वायु चारों दिशाओं की सीमा का अतिक्रमण नहीं करती, वैसे ही मैं भी पिंजरा बनकर गुरु-कृपा को अपने में ही आबद्ध रखूँगा। गुरुदेव की सेवारूपी स्वामिनी को मैं अपने समस्त सद्गुणों के अलंकार से सजाऊँगा। इतना ही नहीं, अपितु मैं ही गुरुदेव की भक्ति का सारा आच्छादन बन जाऊँगा और अन्य किसी को वह आच्छादन नहीं बनने दूँगा। जिस समय गुरु-कृपा की वृष्टि होने लगेगी, उस समय एकमात्र मैं ही पृथ्वी का रूप धारण कर उसके नीचे रहूँगा। वह इसी प्रकार के अनेक मनोरथों की सृष्टि करता है। वह कहता है कि मैं गुरुदेव का स्वयं ही घर बनूँगा और उसमें सेवक की भाँति उनकी सेवा भी करूँगा। अन्दर-बाहर आते-जाते समय गुरुदेव की ड्योढ़ी लाँघेगे वह ड्योढ़ी भी मैं ही बनूँगा और पहरेदार बनकर मैं ही पहरा भी दूँगा। मैं ही उनकी चरण-पादुका बनूँगा और मैं ही उन्हें वह पादुका पहनाऊँगा। मैं ही छाता भी बनूँगा और छाता लगाने वाले की सेवा भी मैं ही करूँगा। मैं ही मार्ग की ऊँची-नीची भूमि बतलाने वाला सेवक बनूँगा और मैं ही चँवर डुलाने वाला भी बनूँगा।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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