श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
न जायते म्रियते वा कदाचि- स्वप्न में दीखने वाली चीज केवल स्वप्न में ही सत्य जान पड़ती है। किन्तु जब कोई व्यक्ति स्वप्न से जागकर देखता है, तब उसे स्वप्नदृष्ट किसी चीज का कोई अता-पता ही नहीं चलता। ठीक इसी प्रकार तुम इस माया को भी जानो। तुम तो केवल भ्रम के शिकार हो गये हो। जैसे किसी की परछाईं पर प्रहार किया हुआ शस्त्र उसके मूल अंग पर चोट नहीं करता या जैसे जल से भरे हुए कुम्भ के पलट जाने पर उसमें दीखने वाली सूर्य की प्रतिच्छाया तो नष्ट हो जाती है, किन्तु उस प्रतिच्छाया के साथ-साथ मूल सूर्य का विनाश नहीं होता या जैसे घड़े के अन्दर का आकाश घड़े के ही आकार का तो होता है, किन्तु उस घड़े के नष्ट हाने की दशा में भी आकाश का मूलस्वरूप ज्यों-का-त्यों ही बना रहता है। ठीक वैसे ही शरीर के क्षय हो जाने पर भी उसके मूलस्वरूप का कभी क्षय नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तुम इस विनाश की झूठी कल्पना का आरोप मूलस्वरूप पर मत मढ़ो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (139-143)
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