ज्ञानेश्वरी पृ. 44

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥20॥
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥21॥

स्वप्न में दीखने वाली चीज केवल स्वप्न में ही सत्य जान पड़ती है। किन्तु जब कोई व्यक्ति स्वप्न से जागकर देखता है, तब उसे स्वप्नदृष्ट किसी चीज का कोई अता-पता ही नहीं चलता। ठीक इसी प्रकार तुम इस माया को भी जानो। तुम तो केवल भ्रम के शिकार हो गये हो। जैसे किसी की परछाईं पर प्रहार किया हुआ शस्त्र उसके मूल अंग पर चोट नहीं करता या जैसे जल से भरे हुए कुम्भ के पलट जाने पर उसमें दीखने वाली सूर्य की प्रतिच्छाया तो नष्ट हो जाती है, किन्तु उस प्रतिच्छाया के साथ-साथ मूल सूर्य का विनाश नहीं होता या जैसे घड़े के अन्दर का आकाश घड़े के ही आकार का तो होता है, किन्तु उस घड़े के नष्ट हाने की दशा में भी आकाश का मूलस्वरूप ज्यों-का-त्यों ही बना रहता है। ठीक वैसे ही शरीर के क्षय हो जाने पर भी उसके मूलस्वरूप का कभी क्षय नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तुम इस विनाश की झूठी कल्पना का आरोप मूलस्वरूप पर मत मढ़ो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (139-143)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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