श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
अब मैं तुम्हें यह बतलाता हूँ कि अहिंसा किसे कहते हैं। पहले यह बात समझ रखो कि अहिंसा की व्याख्या अनेक प्रकार से की जाती है। सब लोग अपने मतानुसार उसकी व्याख्या करते हैं। पर उन व्याख्याओं में इतनी विक्षिप्तता है कि मानो किसी पेड़ की डालियाँ काटकर उसके तने के चतुर्दिक् बाड़ लगा दी गयी हो अथवा हाथ तोड़कर बेच दिया गया हो और फिर उसी पैसों से अपनी भूख शान्त की गयी हो अथवा मन्दिर तोड़कर देवताओं के बैठने के लिए मिट्टी का चबूतरा बनाया गया हो। इसी प्रकार पूर्व मीमांसा में कुछ इस तरह का निर्णय लिया गया है कि हिंसा करके अहिंसा का साधन करना चाहिये। उनका मत है कि जब अनावृष्टि का संकट सम्मुख खड़ा हो तो और वह संकट पूरे विश्व में फैलता हुआ दिखायी पड़े, तो अनेक पर्जन्येष्टि करने चाहिये पर उन यज्ञों में स्पष्ट रूप् से पशुओं की हिंसा होती है। फिर वहाँ अहिंसा का सवाल ही कहाँ? शुद्ध हिंसा के बीज बोकर अहिंसा की फसल कैसे काटी जा सकती है? पर इन पाक्षिकों का (याज्ञिकों का) साहस भी कुछ विलक्षण ही है और हे पाण्डव, जिसे हम आयुर्वेद नाम से जानते हैं, वह भी इसी मार्ग का अनुयायी है। एक जीव के प्राण की रक्षा करने के लिये एक-दूसरे जीव का घात करना ही उसका सिद्धान्त है। दुःख से संतप्त और रोगग्रस्त जीवों को देखकर उनका उपचार करना तो ठीक ही है; परन्तु उस उपचार के लिये पहले तो किसी वनस्पति का कन्द खोदा जाय तथा अन्य किसी वनस्पति के पत्ते जड़ समेत उखाड़े जायँ, किसी वनस्पति को बीच से ही तोड़ लिया जाय तथा किसी वृक्ष की छाल छील ली जाय और कुछ वनस्पतियों के कोमलांकुरों को उबाला जाय, तब कहीं जाकर लोगों का उपचार होता है। जो वृक्ष जन्म से ही कभी किसी के साथ वैर नहीं करते, उनका रस निकालने के लिये उनके सर्वांग में चीरे लगाये जाते हैं और इस प्रकार वृक्षों के प्राण लेकर रोगियों को रोगमुक्त किया जाता है। केवल यही नहीं, सजीव प्राणियों को भी चीरकर उनके शरीर से पित्तादि पदार्थ निकालकर और उन्हीं से दवा बना करके कुछ रोगियों के प्राण बचाये जाते हैं। रहने के लिये बने हुए मकान तोड़कर उसकी सामग्री से मन्दिर का निर्माण करना, व्यापार में गरीबों को लूटकर अन्न-सत्र चलाना, सिर ढककर घुटने नंगे करना, घर तोड़कर मण्डप बनाना, कपड़े जलाकर उनकी आग सेंकना या हाथी को स्नान कराना या बैल बेचकर उसके रहने का स्थान बनाना या तोते को उड़ाकर पिंजरा बनाना इत्यादि-इत्यादि काम हैं अथवा दिल्लगी, इन सब बातों को देखकर कोई कहाँ तक न हँसे? कुछ लोग जल को छानकर पीते हैं और इसे पुण्य-कर्म भी बताते हैं। |
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