ज्ञानेश्वरी पृ. 424

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग


ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै: ॥4॥

कुछ लोग कहते हैं कि सम्पूर्ण स्थल देह-क्षेत्र जीव का ही खेत है और प्राण उसमें खेती करने वाला खेतिहर है। इस प्राण के घर में अपान, व्यान, समान और उदान- ये चार भाई काम करने वाले हैं तथा मन उन सब पर हल चलाने वाला और बीज बोने वाला है। इस मन के पास इन्द्रियरूपी बैल हैं जो खेत जोतने के काम आते हैं। यह न तो दिन को दिन और न रात को रात समझता है और हमेशा विषय रूपी खेत में खूब मेहनत करता रहता है। वह इस प्रकार की जोताई करके जो मिट्टी ऊपर-नीचे करता है, उसके कारण उसमें से कर्तव्य-कर्म के आचरण का तत्त्व निकल जाता है और तब वह खेतिहर इस तत्त्व का नाश करके अन्याय रूपी बीज बोता है तथा उसमें कुकर्मरूपी खाद डालता है। फलतः पापों की फसल पैदा होती है, जिससे जीव को कोटि-जन्मपर्यन्त दुःख झेलना पड़ता है। पर ऐसा न करके यदि कर्तव्य-कर्मों के तत्त्व को स्थिर रहने दिया जाय और सत्कर्मों के बीज बोये जायँ, तो वही जीव सैकड़ों जन्मों तक सुख प्राप्त करता है। इस पर कुछ अन्य लोग कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है। यह क्षेत्र केवल जीव का ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसके विषय में हमें सारी बातें जाननी चाहिये। यह जीव तो सिर्फ एक प्रवासी है। यह तो चक्कर काटता हुआ आता है और मार्ग में कुछ काल के लिये इस क्षेत्र में भी अपना डेरा डाल लेता है। इस क्षेत्र का अधिकारी प्राण है और वह नित्य इसका पहरा देता रहता है। सांख्य शास्त्र में जिसे अनादि प्रकृति कहते हैं, उसी को इस क्षेत्र की वृत्ति प्राप्त है; सारे प्रपंच उसी के हैं। इसलिये इस क्षेत्र की जोताई इत्यादि कार्य उसी के कर्मचारी करते हैं। जो मुख्य तीन गुण हैं वे इसी प्रकृति के पेट से उत्पन्न हुए हैं, जो इस संसार में खेती का काम करते हैं। खेत की जोताई रजोगुण करता है, फसल की रखवाली सत्त्वगुण करता है और उचित समय पर फसल काटकर रखना तमोगुण का काम है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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