श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
जिस योग का माहात्म्य इतना अधिक है, उस योग की रम्य, पावन और अमृत धारा के सदृश मधुर बात जो लोग सुनकर उसका अनुभव करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक ऐसी बातों का विस्तार करते हैं तथा जो इस बात को सदा अपने अन्तःकरण में धारण कर तदनुसार आचरण करते हैं, मैंने जैसी बातें बतलायी हैं वैसी ही मन की स्थिति होने पर उपजाऊ खेत में बोये हुए बीजों से प्राप्त होने वाले उत्तम फल की तरह जो मुझे अत्यन्त श्रेष्ठ समझते हैं तथा मेरी भक्ति के प्रति अपना प्रेम समर्पित कर उसी को सर्वस्व मानते हैं, हे पार्थ! इस संसार में वही सच्चे भक्त और सच्चे योगी हैं। मुझे अनवरत उन्हीं की उत्कण्ठा लगी रहती है। जिन व्यक्तियों को भक्ति विषयक कथाओं का प्रेमपूर्ण अनुराग होता है, वही तीर्थ और वही क्षेत्र हैं तथा वही इस जगत् में पवित्र हैं। वही मेरे ध्यान और वही मरे देवार्चन हैं। उनसे बढ़कर अच्छा मुझे अन्य कोई नहीं दीखता। वही मेरे व्यसन और वही मेरे द्रव्य निधान हैं। किंबहुना, ऐसे भक्तों के प्राप्त हुए बिना मेरे मन को समाधान ही नहीं होता। हे पाण्डुसुत! जो लोग ऐसे प्रेमी भक्तों की कथाओं का गान करते हैं, उन्हें मैं परम देवता, मानता हूँ।” भक्तों को आनन्दित करने वाले और सारे संसार के आदिकारण श्रीमुकुन्द ने पार्थ से ये सब बातें कहीं। ये सब बातें कहकर संजय ने धृतराष्ट्र से कहा कि हे महाराज! जो श्रीकृष्ण निर्मल, निष्कलंक, लोककृपालु, शरणागत का प्रतिपालन करने वाले और रक्षक हैं, देवों की सहायता करना जिनका स्वभाव है, विश्व का पालन करना ही जिनकी लीला है, शरणागतों की रक्षा करना जिनका खेल है, जो धर्म और कीर्ति से अत्यन्त निर्मल हैं, जो अत्यन्त सरल और अपरम्पार उदार हैं जो विषमभाव-रहित हैं, जिनका बल असीम है तथा जो बलिष्ठों को बिना अपनी आज्ञा में लाये नहीं छोड़ते, जो भक्तजनवत्सल हैं, जो अपने प्रेमी भक्तों के साथ प्रेम करने वाले, सत्य का पक्ष लेने वाले तथा समस्त कलाओं के निधि हैं, वे भक्तों के चक्रवर्ती सम्राट् वैकुण्ठ के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही ऐसी बातें कह रहे थे और वह परम सौभाग्यशाली अर्जुन ये सब बातें धैर्यपूर्वक सुन रहा था। फिर संजय ने धृतराष्ट्र से कहा कि अब मैं इसके आगे की कथा का निरूपण करता हूँ, आप सुनें। संजय की कही हुई वही सरस कथा अब देशी भाषा में कही जायगी। श्रोता वृन्द इसकी ओर ध्यान दें। श्रीनिवृत्तिनाथ का शिष्य ज्ञानदेव श्रेताओं से विनम्र निवेदन करता है कि हे महाराज! स्वामी निवृत्तिदेव ने मुझे यही सिखलाया है कि मैं आप सन्तजनों की शरण में आकर सेवा करूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (230-247)
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