श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
जो निन्दा की परवा नहीं करता और स्तुति से भी प्रसन्न नहीं होता, जो इन सब चीजों से वैसे ही निर्लिप्त रहता है, जैसे आकाश को रंगों का लेप नहीं लगता और निन्दा तथा स्तुति को एक ही श्रेणी में रखता है, जो जनसमुदाय में तथा निर्जन वन में भी प्राण के समान अचंचल-वृत्ति से (उदास) और समभाव से विचरण करता है, जो न तो कभी झूठ ही बोलता है और न कभी सत्य ही, बल्कि सदा मौन रहता है और उन्मनी नामक ब्रह्मस्थिति से कभी नहीं अघाता, जो सदा समुद्र की भाँति ठीक वैसे ही भरा रहता है, जैसे वह वृष्टि न होने पर भी भरा रहता है, जो लाभ प्राप्त होने पर भी अति आनन्द से भर नहीं जाता और हानि होने पर भी दुःख से भी दुःखी नहीं होता, जो उसी प्रकार सारे जगत् को अपनी विश्रान्ति का स्थान बनाये रहता है, जिस प्रकार वायु सदा पूरे आकाशमण्डल में संचरण करती रहती है, जो इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करके अपना मन सदा स्थिर रखता है कि यह सारा जगत् ही मेरा घर है, बहुत क्या कहें, जो यह समझता है कि यह चराचर स्वयं मैं ही हूँ और हे पार्थ! ऐसी स्थिति के प्राप्त हो जाने पर भी जिसे मेरी भक्ति के प्रति श्रद्धा रहती है, उसे मैं अपने मस्तक पर मुकुट की भाँति धारण करता हूँ। यदि किसी उत्तम भक्त के समक्ष मस्तक झुकाया जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? पर तीनों लोक भी जिसके चरण तीर्थ आदर पूर्वक अपने मस्तक पर रखते हैं, वह मैं अपने भक्त का कितना अधिक सम्मान करता हूँ, यह अच्छी तरह से जानने के लिये स्वयं सदाशिव-सरीखा ही सद्गुरु होना चाहिये। पर इस विषय में इतना ही कहना पर्याप्त है; क्योंकि यदि मैं शिव की स्तुति करूँ तो मानो स्वयं की ही स्तुति करने के समान होगा; इसलिये यह बात जाने दो।” |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |