ज्ञानेश्वरी पृ. 414

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-12
भक्ति योग


यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ॥15॥

जिस प्रकार सिन्धु-गर्जना से जलचरों को भय नहीं लगता और जैसे जलचरों से कभी समुद्र नहीं ऊबता, वैसे ही जिसे इस जगत् की उन्मत्तता से कभी खेद नहीं होता और जिससे जगत को भी कभी कोई दुःख नहीं होता और हे पाण्डव! जैसे शरीर कभी अपने अवयवों से नहीं उकताता, वैसे ही आत्मैक्य भाव से जो कभी प्राणिमात्र से दुःखी नहीं होता, जिसके चित्त में यह भाव भरा रहता है कि यह सारा जगत् अपना ही है, जिसके चित्त में प्रिय और अप्रिय का भेदभाव नहीं रह जाता और द्वैतभाव न रह जाने के कारण जिसमें हर्ष (आनन्द) और शोक (क्रोध) का नामोनिशान भी नहीं रह जाता, इस प्रकार द्वन्द्व-बुद्धि के झंझट से छुटकारा पाकर जो भय और उद्वेग इत्यादि विकारों से अलिप्त हो जाता है और साथ ही जो मेरा अनन्य भक्त भी है, उस व्यक्ति के प्रति मेरे अन्दर मोह अथवा प्रेम उत्पन्न होता है। उस मनमोहक प्रेम का भला मैं क्या वर्णन करूँ! वह तो मेरे जीव का भी जीव होता है अर्थात् मेरे योग से ही जीता है। जो आत्मानन्द से संतृप्त हो गया है, जो सबका अन्तिम गन्तव्य स्थान ब्रह्म है, उसी रूप में जन्म को प्राप्त हो गया और वह पूर्ण ब्रह्मस्थितिरूप स्त्री का प्रिय पति हो गया।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (165-171)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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