ज्ञानेश्वरी पृ. 410

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-12
भक्ति योग


अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कर्वन्सिद्धिमवास्यसि ॥10॥

इस प्रकार अभ्यास करने की शक्ति यदि तुम्हारे शरीर में न हो तो फिर तुम जिस जगह पर और जैसे हो, उसी जगह पर और वैसे ही रहो। इन्द्रियों का अवरोध मत करो, भोगों का त्याग मत करो और अपनी जाति का अभिमान भी मत त्यागो। अपने कुल-धर्म का पालन करते चलो तथा विधि निषेध का ध्यान रखो। इस प्रकार का आचरण करने की तुम्हें पूरी स्वतन्त्रता है। पर मनसा-वाचा और शरीर से जो-जो कर्म हों, उनके विषय में तुम कभी यह मत कहो कि ये कर्म मैंने किये हैं। करना और न करना तो केवल परमात्मा ही जानता है जो इस विश्व का संचालक है। यह कर्म न्यून है और यह कर्म पूर्ण है, इस बात का विचार तुम अपने मन में कभी मत करो। अपने मनोभाव स्वयं अपनी आत्मा के साथ एकरूप करके अपने जीवन के समस्त कर्मों को सम्पन्न करो। माली जिधर जल ले जाता है, वह चुपचाप उधर ही चला जाता है। उसी प्रकार तुम भी अपने कर्तृत्व का अभिमान त्यागकर शान्त रहो। कहने का आशय यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति के बोझ अपने चित्त पर मत लादो, अपनी चित्तवृत्ति अनवरत मुझमें ही स्थिर रखो। हे सुभट! अब तुम्हीं बतलाओ कि क्या रथ कभी इस बात को सोचता है कि यह मार्ग सीधा है अथवा टेढ़ा? इस प्रकार स्वयं को पृथक् रखते हुए जो-जो कर्म होते चलें, उनके बारे में न तो कभी यह कहो कि ये न्यून हैं और न यह कहो कि ये बहुत हैं तथा शान्तिपूर्वक वे समस्त कर्म मुझे समर्पित करते चलो। हे अर्जुन! यदि तुम्हारी भावना इस प्रकार की हो जायगी तो तुम शरीर छोड़ने के उपरान्त मेरे सायुज्य सदन में आ पहुँचोगे।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (114-124)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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