श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
इस प्रकार अभ्यास करने की शक्ति यदि तुम्हारे शरीर में न हो तो फिर तुम जिस जगह पर और जैसे हो, उसी जगह पर और वैसे ही रहो। इन्द्रियों का अवरोध मत करो, भोगों का त्याग मत करो और अपनी जाति का अभिमान भी मत त्यागो। अपने कुल-धर्म का पालन करते चलो तथा विधि निषेध का ध्यान रखो। इस प्रकार का आचरण करने की तुम्हें पूरी स्वतन्त्रता है। पर मनसा-वाचा और शरीर से जो-जो कर्म हों, उनके विषय में तुम कभी यह मत कहो कि ये कर्म मैंने किये हैं। करना और न करना तो केवल परमात्मा ही जानता है जो इस विश्व का संचालक है। यह कर्म न्यून है और यह कर्म पूर्ण है, इस बात का विचार तुम अपने मन में कभी मत करो। अपने मनोभाव स्वयं अपनी आत्मा के साथ एकरूप करके अपने जीवन के समस्त कर्मों को सम्पन्न करो। माली जिधर जल ले जाता है, वह चुपचाप उधर ही चला जाता है। उसी प्रकार तुम भी अपने कर्तृत्व का अभिमान त्यागकर शान्त रहो। कहने का आशय यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति के बोझ अपने चित्त पर मत लादो, अपनी चित्तवृत्ति अनवरत मुझमें ही स्थिर रखो। हे सुभट! अब तुम्हीं बतलाओ कि क्या रथ कभी इस बात को सोचता है कि यह मार्ग सीधा है अथवा टेढ़ा? इस प्रकार स्वयं को पृथक् रखते हुए जो-जो कर्म होते चलें, उनके बारे में न तो कभी यह कहो कि ये न्यून हैं और न यह कहो कि ये बहुत हैं तथा शान्तिपूर्वक वे समस्त कर्म मुझे समर्पित करते चलो। हे अर्जुन! यदि तुम्हारी भावना इस प्रकार की हो जायगी तो तुम शरीर छोड़ने के उपरान्त मेरे सायुज्य सदन में आ पहुँचोगे।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (114-124)
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