ज्ञानेश्वरी पृ. 41

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥14॥

अब यदि तुम यह प्रश्न करो कि यह तत्त्व समझ से परे क्यों है, तो इसका कारण यह है कि मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत होता है और जब अन्तःकरण इन्द्रियाधीन हो जाता है, तब मनुष्य भ्रम का शिकार हो जाता है। इन्द्रियाँ विषय रस का पान करती हैं और इसी से सुख और दुःख आदि उत्पन्न होते हैं और तब अपने संसर्ग से अन्तःकरण को ग्रसित कर लेती हैं। यही कारण है कि ये विषय कभी एक तार नहीं रहते। वे कभी दुःखपूर्ण और कभी सुखपूर्ण प्रतीत होते हैं। अब तुम यह देखो कि निन्दा और स्तुति-इन दोनों में ही शब्द व्याप्त हैं। किन्तु जब श्रवणेन्द्रिय इनको ग्रहण करती है, तब एक से वैर (क्रोध) और दूसरे से मेल-मिलाप (लोभ), इस तरह दो अलग-अलग विकार उत्पन्न होते हैं। मृदुता ओर कठोरता-ये दोनों गुण वास्तव में स्पर्शविषयक ही हैं और जब ये त्वगिन्द्रिय के सम्पर्क में होते हैं तब ये सुख-दुःख उत्पन्न करने के हेतु होते हैं। वैसे रूप चाहे भयानक हो और चाहे सुन्दर हो, पर होते हैं दोनों रूप के ही विषय। परन्तु जब नेत्रों के द्वारा उनका अनुभव किया जाता है, तब दुःख अथवा सुखपूर्ण संवेदना का अनुभव होता है। सुगन्ध और दुर्गन्ध-ये दोनों वास्तव में गन्ध के ही विषय हैं। परन्तु घ्राणेन्द्रिय से सम्पर्क होने पर ये सुख और दुःख उत्पन्न करने का कारण होती हैं। इसी प्रकार जब रसनेन्द्रिय विषय रस का सेवन करती है, तब उसके दो भेद होते हैं जो रुचि और अरुचि के हेतु होते हैं और विषयों का सेवन करने से ही मूल स्वरूप से च्युत होने की स्थिति आ खड़ी होती है।

हे अर्जुन! देखो, जब हम इन्द्रियों के अधीन होते हैं तथा सर्दी और गर्मी आदि का अनुभव करते हैं, तब ऐसा लगता है मानो हम स्वयं ही सुख-दुःख के भँवर में फँसे हैं। इन इन्द्रियों का यह सहज स्वभाव ही है कि उन्हें इन विषयों के सिवा और कोई चीज रुचती ही नहीं। यदि तुम यह प्रश्न करो कि ये विषय कैसे होते हैं तो इसका सही जवाब यह है कि ये विषय मृगतृष्णा की भाँति या स्वप्न में दृष्ट हाथी के सदृश अनित्य हैं। इसीलिये हे धनुर्धर! तुम इन विषयों को अनित्य जानकर अपने से दूर भगाओ और भूलकर भी इनका साथ मत करो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (111-122)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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