श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
फिर सम्पूर्ण वीरों में श्रेष्ठ और सोमवंश का विजयध्वज राजा पाण्डु का पुत्र अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा-“हे प्रभु! आपने मेरी बात सुन ली न? आपने मुझे जो विश्वरूप का दर्शन कराया था, वह अत्यन्त अद्भुत था, इसीलिये मेरा चित्त उस अद्भुत स्वरूप को देखकर व्यग्र हो गया था और मैं सदा से इस कृष्ण-मूर्ति से परिचित था, इसलिये मेरा चित्त सिर्फ यही चाहता था कि मैं इसी का आश्रय लूँ; परन्तु आपने ऐसा करने से मना कर दिया; परन्तु व्यक्त (सगुण) और अव्यक्त (निर्गुण) ये दोनों आपके ही स्वरूप हैं। व्यक्त अर्थात् सगुणरूप का साधन भक्ति से होता है और अव्यक्त अर्थात् निगुर्ण का साधन योग से होता है। हे वैकुण्ठ के स्वामी! ये दोनों ही मार्ग आपके सन्निकट पहुँचाने वाले हैं। सगुण और निर्गुण इन मार्गों के प्रवेश-द्वार है। कसौटी पर स्वर्ण के ईंट को कसने से जो कस आता है, वही कस उसमें से निकाले हुए रत्तीभर स्वर्ण का भी आता है। अत: एकदेशीय सगुण और सर्वव्यापक निर्गुण दोनों की योग्यता समान ही है। अमृत के समुद्र में जो सामर्थ्य है, वही सामर्थ्य अमृत की तरंग के एक चुल्लू में भी रहती है। हे देव! अब मुझे इस प्रकार का निश्चित ज्ञान हो गया है। पर हे योगेश्वर! मैंने जो यह प्रश्न किया है, वह सिर्फ इसीलिये कि आपने अभी कुछ समय के लिये जो विश्वरूप धारण किया था, उसके बारे में मेरी यही समझने की लालसा है कि वह स्वरूप वास्तविक था अथवा बनावटी; परन्तु एक तो वे भक्तियोगी होते हैं जो सिर्फ आपके प्रीत्यर्थ समस्त काम करते हैं, सिर्फ आपको ही सबसे श्रेष्ठ समझते हैं अथवा सारा मनोधर्म आपकी भक्ति से अंकित कर लेते हैं और सब प्रकार से आपको अपने अन्तःकरण में विराजमान कर आपकी उपासना करते हैं तथा दूसरे वे ज्ञान-योगी होते हैं, जो आत्मैक्य भाव से उस चीज की उपासना करते हैं जो ओंकार से भी परे हैं, जो स्पष्ट वाणी के लिये अप्राप्य है, जो अनुपमेय है और जो अविनाशी, निगुर्ण, अवर्णनीय तथा स्थलीहीन है। अतः हे अनन्त! आप कृपापूर्वक यह बतलावें कि उन भक्तियोगियों और इन ज्ञानयोगियों में से यथार्थ ज्ञान किसको होता है।” अर्जुन की यह बात सुनकर जगद्बन्धु श्रीकृष्ण को संतोष हुआ और उन्होंने कहा-“हे अर्जुन! प्रश्न पूछने का बहुत अच्छा तरीका तुझे मालूम है। अच्छा सुनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (20-34)
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