ज्ञानेश्वरी पृ. 395

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग

तत्पश्चात् जो दिव्य तेज समस्त विश्व को व्याप्त करके उसके चतुर्दिक् फैला हुआ था, वह सब अब उस श्रीकृष्णरूप में समाविष्ट हो गया। जैसे आत्म विचार करते समय ‘त्वम्’ पद का ‘तत्’ पद में समावेश हो जाता है अथवा सम्पूर्ण वृक्ष का अन्तर्भाव सूक्ष्म बीज में हो जाता है अथवा स्वप्न की सारी बातें जीव के जागने पर लुप्त हो जाती हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण ने अपने सगुण स्वरूप में इस विश्वरूप का योग इकट्ठा करके रख लिया। यह बात भी उसी प्रकार हुई थी, जिस प्रकार सूर्य की प्रभा सूर्य में अथवा मेघ-समूह गगन में अथवा समुद्र की बाढ़ समुद्र में समा जाती है। कृष्णमूर्ति के आकार में विश्वरूप-वस्त्र की तह लगी हुई रखी थी; उसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रेम से प्रेरित होकर खोलकर अर्जुन को दिखला दिया; पर जब उन्होंने देखा कि उस वस्त्र की लम्बाई-चौड़ाई और रंग इत्यादि भली-भाँति देख लेने पर ग्राहक को वह वस्त्र पसन्द नहीं आया, तब उन्होंने उस वस्त्र की फिर पूर्व की ही भाँति तह लगा ली। इस प्रकार जिस स्वरूप ने अपने असीम विस्तार के कारण समस्त चीजों को आच्छादित कर रखा था, वह स्वरूप अब शान्त और सौम्य हो गया।

आशय यह है कि उन अनन्त भगवान् श्रीकृष्ण ने फिर वही पुराना छोटा रूप धारण कर लिया और भयग्रस्त अर्जुन का फिर से समाधान किया। जैसे स्वप्नावस्था में कोई व्यक्ति एक बार स्वर्ग में जाकर सुखी होता है, पर अचानक जाग उठने पर वह विस्मित होता है, ठीक वैसी ही दशा इस समय अर्जुन की हुई थी अथवा जैसे सद्गुरु का अनुग्रह होने पर समस्त प्रपंच-ज्ञान समाप्त हो जाता है और यथार्थ तत्त्व का ज्ञान होता है, ठीक वैसी ही दशा श्रीकृष्ण की मूर्ति के देखने से उस समय अर्जुन की हुई थी। उस समय अर्जुन को ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे नेत्रों के समक्ष विश्वरूप का जो पर्दा आ पड़ा था, वह अब हट गया, यह बहुत ही बढ़िया हुआ। उस समय जब अर्जुन ने फिर से भगवान् का वही पहले वाला रूप देखा, तब तुरन्त ही उसे इस प्रकार का अपार आनन्द हुआ कि मानो वह महाकाल पर विजय प्राप्त करके आया हो अथवा मेघ और महावायु को भी प्रतिस्पर्धा में पीछे छोड़ आया हो अथवा हाथ के सहारे सातों समुद्र पार कर आया हो। जैसे सूर्यास्त होने पर गगनमण्डल में तारागण दृष्टिगोचर होने लगते हैं, वैसे ही उसे पृथ्वी और उसमें के समस्त जीव दृष्टिगत होने लगे। जब उसने अपने चतुर्दिक् देखा, तो उसे पहले वाला कुरुक्षेत्र दिखायी पड़ा। उसने अपने दोनों तरफ अपने सब भाई-बन्धुओं को देखा, उस युद्धभूमि में समस्त शूरवीर एक-दूसरे पर शस्त्र-अस्त्रों की वर्षा कर रहे थे। उन शूरवीरों के बाणों के मण्डप के नीचे उसने अपना रथ भी पूर्व की भाँति खड़ा हुआ देखा, उसने यह भी देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण तो सारथ्य के स्थान पर बैठे हैं और मैं नीचे खड़ा हूँ।[1]

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681
  1. (640-662)

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