ज्ञानेश्वरी पृ. 387

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥45॥

हे देव! विश्वरूप के दर्शन कराने का जो मैंने धृष्टापूर्वक आपसे आग्रह किया, उसे तो इस विश्व के आप माता-पिता ने अत्यन्त प्रेमपूर्वक पूरा कर दिया। मैंने ऐसे नाना प्रकार के हठ किये कि मेरे घर के आँगन में कल्पतरु के झाड़ लग जायँ, कामधेनु के बछड़े मुझे क्रीड़ा करने को मिलें। मेरे चौपड़ खेलने के लिये नक्षत्रों के पासे बनें और मुझे क्रीड़ा करने के लिये चन्द्रमा का गेंद मिले और एक प्रेमपूर्ण माता की भाँति आपने मेरे वे सभी हठ पूरे किये। जिस अमृत-बिन्दु को पाने के लिये अपार दुःख झेलना पड़ता है, उस अमृत की आपने चातुर्मासभर वर्षा की और पृथ्वी की जुताई करके मानो आपने क्यारी-क्यारी चिन्तामणियों की बोआई कर दी। हे स्वामी! आपने इस प्रकार से मुझे कृतार्थ किया है और बड़े दुलार से मेरा पालन-पोषण किया है। आपने मुझे उस विश्वरूप के दर्शन कराये हैं जिस रूप के बारे में कभी शंकर और ब्रह्मा ने कानों से भी नहीं सुना था। आपके जीवन का वह रहस्य देखना तो दूर रहा, पर जो उपनिषदों के विचार-क्षेत्र में भी नहीं आ सकता, वही रहस्य आज आपने खोलकर मेरे सामने रख दिया है। हे स्वामी! कल्पारम्भ से लेकर आज तक मैंने जितने जन्म ग्रहण किये, यदि उन सब जन्मों को अच्छी तरह से निरीक्षण किया जाय तो भी कहीं यह पता नहीं चलेगा कि मेरे लिये कभी वह रहस्य देखने अथवा सुनने का प्रसंग आया था; मेरे अन्तःकरण को भी कभी इस बात की भनक भी नहीं मिली थी; तो फिर नेत्रों को इसके प्रत्यक्ष दर्शन की बात ही कहाँ रही।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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