ज्ञानेश्वरी पृ. 290

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥33॥

सचमुच जब स्थिति ऐसी है, तब जो ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ हैं, स्वर्ग जिनकी जागीर है और जो मन्त्र-विद्या के जन्मस्थान हैं, जो भूसुर हैं जो तप के मूर्तिमन्त अवतार हैं जिसके योग से तीर्थों का भी भाग्योदय हो जाता है, जो यज्ञ के आश्रय हैं जो वेदों के कवच हैं, जिनकी कृपादृष्टि की गोद में ही बैठकर मंगल भी वृद्धि को प्राप्त होता है, जिनकी आस्था की आर्द्रता से सत्कर्म का विस्तार होता है, जिनके संकल्प से ही सत्य का जीवन बना हुआ है, जिनके आर्शीवाद से अग्नि ने आयुष्य प्राप्त किया है और इसीलिये अग्नि के जन्मजात शत्रु समुद्र ने भी बड़वाग्नि को अपना जल समर्पित करके उसका पोषण किया है, जिनके चरणों की धूलि पाने के लिये मैंने स्वयं लक्ष्मी को भी एक ओर हटाकर और बीच में बाधा उत्पन्न करने वाली कौस्तुभ मणि को भी निकालकर अपने हाथों में ले लिया और अपने वक्षःस्थल का पुट उनके चरणों के आगे रख दिया है और हे अर्जुन! अपने सौभाग्यशाली होने का लक्षण बनाये रखने के लिये मैं अब तक अपने वक्षःस्थल पर जिनके चरण-चिह्न धारण किये रहता हूँ, हे सुभट! जिनकी क्रोधरूपी अग्नि में प्रत्यक्ष रुद्र का निवास है और जिनकी कृपा से अष्ट महासिद्धियाँ अनायास ही और बिना मूल्य के प्राप्त होती हैं; उन परम पूज्य पुण्यवान् ब्राह्मणों के सम्बन्ध में तो यह कहने की जरूरत ही नहीं है कि मेरे स्वरूप में लीन रहने वाले उन ब्राह्मणों को मेरी प्राप्ति होती है। देखो, चन्दन-वृक्ष के साथ लगकर जो हवा आती है, उसके संसर्ग से अगल-बगल के नीम के पेड़ भी महकने लगते हैं और वे जड-वृक्ष भी देवताओं के सिर पर जगह प्राप्त करते हैं। फिर जो साक्षात् चन्दन ही हो, वह भला देवों के सिर पर कैसे जगह न पायेगा? अथवा उसके विषय में यह कहने की जरूरत ही क्या है कि उसे देवों के सिर पर जगह मिलेगी।”

यदि भगवान् शिव यह सोचकर अर्ध चन्द्रमा अपने सिर पर धारण किये रहते हैं कि विषपान करने से उत्पन्न दाहकता चन्द्रमा के स्पर्श से शान्त हो जायगी, तो फिर वह चन्दन शरीर के समस्त अवयवों में क्यों न लगाया जाय, जिसके दाह शमन करने के गुण का साक्षात् अनुभव होता है और जो पूर्णता तथा सुगन्ध में चन्द्रमा से भी बढ़कर है? अथवा जिस गंगा का सहारा लेकर मार्ग में बहने वाला जल भी जाकर समुद्र में मिल जाता है, उस गंगा के सम्बन्ध में भला यह कब हो सकता है कि वह समुद्र में जाकर न मिले। ऐसी दशा में जो राजर्षि अथवा ब्राह्मण निर्मल अन्तःकरण से मुझे ही अपना शरण्य अर्थात् अपने रक्षण का साधन समझते हैं, निःसन्देह मैं ही उनके अन्तिम शाश्वत सुख का साधन स्थान होता हूँ। ऐसी स्थिति में उस नौका में व्यक्ति चिन्तामुक्त होकर क्यों पड़ा रहे, जिसमें सैकड़ों छिद्र हो चुके हों?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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