श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
पुनः हाथ की हथेलियाँ सम्पुटाकार (दोने की तरह) होकर स्वतः बायें पैर पर आकर टिक जाती हैं और मालूम पड़ता है कि कन्धों की कुछ ऊँचाई बढ़ गयी है। शरीर-दण्ड सीधा स्थिर रहता है और उसके मध्य में मस्तक घुसा हुआ-सा जान पड़ता है और नेत्र-द्वार के किंवाड़रूपी पलकें स्वतः बन्द होती-सी दीखती हैं। नेत्रों की ऊपर वाली पलकें तो बन्द हो जाती हैं, पर नीचे वाली पलकें खुली रहती हैं। इसमें आँखें अर्धोन्मीलित रहती हैं, फिर दृष्टि भीतर की तरफ बढ़कर थोड़ा-सा बाहर की तरफ आती है और आकर नासाग्र पर टिक जाती है। इस प्रकार दृष्टि भीतर की तरफ जाने के कारण फिर बाहर नहीं जा सकती; और तब उस अर्धविकसित दृष्टि को नासाग्र पर ही स्थिर होना पड़ता है। फिर किसी दिशा में दृष्टिक्षेप अथवा किसी के रूपरंग को देखने की इच्छा स्वतः समाप्त हो जाती है। सिर दबकर नीचे बैठ जाता है और ठुड्डी कण्ठ के नीचे के गड्ढे में जम जाती है और सिर बिल्कुल वक्ष से जा सटता है। इससे कण्ठनलिका भी उसी में सिमटकर फँस जाती है, इस प्रकार जो बन्ध बनता है, उसी को जालन्धर कहते हैं। नाभि ऊपर उठ आती है और पेट भीतर घुस जाता है, किन्तु हृदय-कोश प्रफुल्लित हो जाता है, इस प्रकार नाभि के नीचे स्वाधिष्ठान चक्र के ऊपर जो बन्ध बनता है, उसे उड्डीयान-बन्ध कहते हैं। इस प्रकार की बन्ध-मुद्रा से शरीर के बाह्य अंगों पर योगाभ्यास का प्रभाव पड़ता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (201-210)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |