ज्ञानेश्वरी पृ. 162

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर: ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥13॥

पुनः हाथ की हथेलियाँ सम्पुटाकार (दोने की तरह) होकर स्वतः बायें पैर पर आकर टिक जाती हैं और मालूम पड़ता है कि कन्धों की कुछ ऊँचाई बढ़ गयी है। शरीर-दण्ड सीधा स्थिर रहता है और उसके मध्य में मस्तक घुसा हुआ-सा जान पड़ता है और नेत्र-द्वार के किंवाड़रूपी पलकें स्वतः बन्द होती-सी दीखती हैं। नेत्रों की ऊपर वाली पलकें तो बन्द हो जाती हैं, पर नीचे वाली पलकें खुली रहती हैं। इसमें आँखें अर्धोन्मीलित रहती हैं, फिर दृष्टि भीतर की तरफ बढ़कर थोड़ा-सा बाहर की तरफ आती है और आकर नासाग्र पर टिक जाती है। इस प्रकार दृष्टि भीतर की तरफ जाने के कारण फिर बाहर नहीं जा सकती; और तब उस अर्धविकसित दृष्टि को नासाग्र पर ही स्थिर होना पड़ता है। फिर किसी दिशा में दृष्टिक्षेप अथवा किसी के रूपरंग को देखने की इच्छा स्वतः समाप्त हो जाती है। सिर दबकर नीचे बैठ जाता है और ठुड्डी कण्ठ के नीचे के गड्ढे में जम जाती है और सिर बिल्कुल वक्ष से जा सटता है। इससे कण्ठनलिका भी उसी में सिमटकर फँस जाती है, इस प्रकार जो बन्ध बनता है, उसी को जालन्धर कहते हैं। नाभि ऊपर उठ आती है और पेट भीतर घुस जाता है, किन्तु हृदय-कोश प्रफुल्लित हो जाता है, इस प्रकार नाभि के नीचे स्वाधिष्ठान चक्र के ऊपर जो बन्ध बनता है, उसे उड्डीयान-बन्ध कहते हैं। इस प्रकार की बन्ध-मुद्रा से शरीर के बाह्य अंगों पर योगाभ्यास का प्रभाव पड़ता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (201-210)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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