गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द9. सांख्य, योग और वेदांत
आज जब ज्ञानमार्ग का नाम लिया जता है तब हम साधारणतया शंकर की उस पद्धिति की बात सोचते हैं जो उनके दर्शन की इन्ही धारणओं पर अवलंबित है, अर्थात् जीवन का त्याग करना होगा, क्योंकि वह माया है, भ्रम है। परंतु गीता के समय में माया वेदांत- दर्शन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण शब्द नहीं बना था, न इस शब्द का इतने स्पष्ट रूप से वह अर्थ ही किया गया था जो शंकर ने इतनी साफ और जोरदार भाषा में किया; क्योंकि गीता में माया की चर्चा बहुत कम है, उसमें अधिकतर प्रकृति की चर्चा है, और माया शब्द का जहाँ प्रयोग हुआ है वहाँ प्रकृति के ही अर्थ मैं, वह भी प्रकृति की निम्न कक्षा सूचित करने के लिये हुआ है; माया कहा गया है त्रिगुणत्मिका, अपरा प्रकृति को-त्रैगुण्यमयी माया। गीता में विश्च का निमित-कारण प्रकृति है, भरमाने वाली माया नहीं। अध्यात्मशास्त्र के सिद्धांतों में चाहे जो सूक्ष्म विशिष्टताएं हों, तो भी गीता में दिये हुए सांख्य और योग का जो व्यावहारिक भेद है वह वही है जो आजकल वेदांत के ज्ञानयोग और कर्मयोग में माना जाता है, और इन दोनों के फलों में जो विभिन्नता है वह भी वैसी ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पर साथ ही बौद्धों के महायान संप्रदाय पर गीता का बहुत बड़ा प्रभाव दीख पड़ता है और बौद्धों के धर्मशास्त्रों में गीता के कुछ श्लोक अक्षरशः उदधृत हुए पाये जाते हैं। इससे यह मालूम होता है कि बौद्धमत जो पहले नैष्कर्म्यप्रवण और संबुद्ध यतियों का ही मार्ग था, पीछे बहुत कुछ गीता के प्रभाव से ही ध्यानपरायण भक्ति का और करुणात्मक कर्म का धर्म बन गया और समग्र एशिया महाद्वीप की संस्कृति पर उसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।
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