गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 595

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
24.गीता का संदेश


जब एक बार वह सच्ची चेतना एवं ज्ञान लाभ कर लेता है, तब फिर कोई भी समस्या शेष नहीं रह जातीः क्योंकि तब वह अपने ही अंदर से स्वतंत्र रूप में कार्य करता है और अपनी आत्मा तथा उच्चतम प्रकृति के सत्य के अनुसार सहज-स्फूर्त रूप में जीवन-यापन करता है। इस ज्ञान की पूर्णतम अवस्था में, उसके उच्चात्युच्च शिखर पर कर्म का कर्ता वह स्वयं नहीं होता, वरन् भगवान होते हैं, वहाँ एकमेव सनातन एवं अंनत ही उसकी मुक्त प्रज्ञा, शक्ति और पूर्णता में उसके अंदर तथा उसके द्वारा करते हैं। अपनी प्राकृत सत्ता में मनुष्य प्रकृति का सात्त्विक राजसिक किंवा तामसिक प्राणी होता है। इसका जो कोई भी गुण उसमें प्रधान होता है उसके अनुसार वह अपने जीवन और कर्म का यह या वह विधान बना लेता हे और उसका अनुसरण करता है। उसका तामसिक, स्थूल इन्द्रियप्रवण मन तम, भय और अज्ञान के वश कुछ तो अपनी परिस्थिति के दबाव के अनुसार चलता है और कुछ अपनी कामनाओं के आकस्मिक आवेगों के अनुसार, या फिर वह जड़ रूढ़िग्रस्त बुद्धि की अभ्यस्त दिनचर्या का ही आश्रय ग्रहण करता है।

कामना का पुतला राजसिक मन इस जगत के साथ जिसमें वह रहता है, संघर्ष करता रहता है और नित नयी-नयी चीजें प्राप्त करने की चेष्टा करता है, नेतृत्व करने युद्ध करने, विजय पाने, निर्माण करने, विनाश करने और संग्रह करने का यत्न करता रहता है। वह सदा सिद्धि और असिद्धि हर्ष और शोक, आशा और निराशा के बीच धक्के खाता हुआ आगे बढ़ा करता है वह चाहे जो भी नियम स्वीकार करता हुआ दिखायी दे, पर असल में वह सभी चीजों में निम्न स्व और अंह के नियम का, अर्थात आसुरी और राक्षसी प्रकृति के चंचल अश्रांत, स्व-भक्षी और सर्वभक्षी मन के नियम का ही अनुसरण करता है। सात्त्विक बुद्धि इस अवस्था को कुछ पार कर जाती है वह देखती है कि कामना और अंह के विधान से श्रेष्ठ किसी अन्य विधान का अनुसरण करना चाहिये और वह एक सामाजिक नैतिक, धार्मिक नियम की, एक धर्म एवं शास्त्र की स्थापना करती है तथा उसे अपने ऊपर लागू करती है। मनुष्य का साधारण मन बस इतनी ऊचाई तक ही जा सकता है अर्थात वह मन और इच्छाशक्ति के मार्ग-निर्देश के लिये एक आदर्श की या एक व्यावहारिक नियम की स्थापना कर सकता है और फिर जीवन और कार्य-व्यवहार में यथासंभव सच्चाई के साथ उसका पालन भी कर सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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