|
गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
24.गीता का संदेश
जब एक बार वह सच्ची चेतना एवं ज्ञान लाभ कर लेता है, तब फिर कोई भी समस्या शेष नहीं रह जातीः क्योंकि तब वह अपने ही अंदर से स्वतंत्र रूप में कार्य करता है और अपनी आत्मा तथा उच्चतम प्रकृति के सत्य के अनुसार सहज-स्फूर्त रूप में जीवन-यापन करता है। इस ज्ञान की पूर्णतम अवस्था में, उसके उच्चात्युच्च शिखर पर कर्म का कर्ता वह स्वयं नहीं होता, वरन् भगवान होते हैं, वहाँ एकमेव सनातन एवं अंनत ही उसकी मुक्त प्रज्ञा, शक्ति और पूर्णता में उसके अंदर तथा उसके द्वारा करते हैं। अपनी प्राकृत सत्ता में मनुष्य प्रकृति का सात्त्विक राजसिक किंवा तामसिक प्राणी होता है। इसका जो कोई भी गुण उसमें प्रधान होता है उसके अनुसार वह अपने जीवन और कर्म का यह या वह विधान बना लेता हे और उसका अनुसरण करता है। उसका तामसिक, स्थूल इन्द्रियप्रवण मन तम, भय और अज्ञान के वश कुछ तो अपनी परिस्थिति के दबाव के अनुसार चलता है और कुछ अपनी कामनाओं के आकस्मिक आवेगों के अनुसार, या फिर वह जड़ रूढ़िग्रस्त बुद्धि की अभ्यस्त दिनचर्या का ही आश्रय ग्रहण करता है।
कामना का पुतला राजसिक मन इस जगत के साथ जिसमें वह रहता है, संघर्ष करता रहता है और नित नयी-नयी चीजें प्राप्त करने की चेष्टा करता है, नेतृत्व करने युद्ध करने, विजय पाने, निर्माण करने, विनाश करने और संग्रह करने का यत्न करता रहता है। वह सदा सिद्धि और असिद्धि हर्ष और शोक, आशा और निराशा के बीच धक्के खाता हुआ आगे बढ़ा करता है वह चाहे जो भी नियम स्वीकार करता हुआ दिखायी दे, पर असल में वह सभी चीजों में निम्न स्व और अंह के नियम का, अर्थात आसुरी और राक्षसी प्रकृति के चंचल अश्रांत, स्व-भक्षी और सर्वभक्षी मन के नियम का ही अनुसरण करता है। सात्त्विक बुद्धि इस अवस्था को कुछ पार कर जाती है वह देखती है कि कामना और अंह के विधान से श्रेष्ठ किसी अन्य विधान का अनुसरण करना चाहिये और वह एक सामाजिक नैतिक, धार्मिक नियम की, एक धर्म एवं शास्त्र की स्थापना करती है तथा उसे अपने ऊपर लागू करती है। मनुष्य का साधारण मन बस इतनी ऊचाई तक ही जा सकता है अर्थात वह मन और इच्छाशक्ति के मार्ग-निर्देश के लिये एक आदर्श की या एक व्यावहारिक नियम की स्थापना कर सकता है और फिर जीवन और कार्य-व्यवहार में यथासंभव सच्चाई के साथ उसका पालन भी कर सकता है।
|
|