गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 24.गीता का संदेश
तब तक तुम सदा अंतहीन रूप से एक ही जगह चक्कर काटते रहोगे और तब तक कोई वास्तविक निस्तार संभव नहीं। अपने संकल्प को हृदय तथा उसकी कामनाओं और इन्द्रियों तथा उनके आकर्षणों से परे अंदर की ओर फेर ले जाओ; इसे मन तथा उसके संस्कारों एवं आसक्तियों से तथा उसकी सीमाबद्ध इच्छा, विचार एवं आवेग से परे ऊपर की ओर उठा ले जाओ। अपने अंदर एक ऐसी वस्तु प्राप्त कर लो जो सनातन है, नित्य-अपरिवर्तनीय शांत अविचल और सम है, सब वस्तुओं, व्यक्तिओं और घटनाओं के प्रति पक्षपात शुन्य है, किसी कर्म से प्रभवित नहीं होती, प्रकृति के रूपों के द्वारा परिवर्तित नहीं होती। वही वस्तु बन जाओ, सनातन आत्मा बनो। यदि तुम एक स्थायी आध्यात्मिक अनुभूति के द्वारा वही वस्तु बन सको तो तुम्हें एक विश्वस्त आधार मिल पायेगा जिस पर स्थिर होकर तुम अपने मनोनिर्मित व्यक्तित्व की सीमाओं से मुक्त रह सकोगे, वहाँ शांति और ज्ञाप से च्युत होने का कोई खतरा नहीं रहेगा, अहं का कोई बंधन नहीं रहेगा। जब तक तुम अपने अहंकार को या उससे संबंध रखने वाली किसी भी चीज को पालते-पोसते रहोगे तथा उससे चिपके रहोगे तब तक तुम अपनी सत्ता को इस प्रकार निर्व्यक्तिक नहीं बना सकते। कामना तथा इससे उत्पन्न होने वाले आवेग अहंकार की मुख्य निशानी और गांठ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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