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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
24.गीता का संदेश
इसे सचेतन एवं पूर्ण रूप से, अहं के द्वारा किसी भी प्रकार विकृत करने का अभिशाप प्राप्त है। इसे सचेतन एवं पूर्ण रूप से, अहं के द्वारा किसी भी प्रकार विकृत किये बिना, भगवान् की परा अध्यात्म-प्रकृति की एक शक्ति बनाओ, उनके संकल्प तथा कर्मों का वाहन बनाओ। इस प्रकार तुम अपनी सत्ता के समग्र सत्य में निवास करोगे। परमोच्च देव है पुरुषोत्तम, वे समस्त अभिव्यक्ति से परे एक सनातन सत्ता हैं, वे एक निःसीम सत् हैं-देश-काल या निमित के द्वारा अथवा अपने असंख्य गुणों एवं लक्षणों में से किसी के द्वारा किसी भी प्रकार सीमाबद्व नहीं होते। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि अपनी परम शाश्वत सत्ता में वे इहलोक में घटने वाली किसी भी घटना से संबद्ध नहीं जगत तथा प्रकृति से विच्छिन्न है, इन सब व्यष्टिभूत सत्ताएं भी हैं। विश्वगत आत्मा, प्राण और जड़तत्त्व जीव और प्रकृति तथा प्रकृति के कर्म उनकी अनंत एवं सनातन सत्ता के विभिन्न रूप और व्यापार हैं। वे परमोच्च परात्पर परमात्मा हैं और सब कुछ उन्हीं से अभिव्यक्त होता है, सभी उन्हीं के रूप में एवं आत्मशक्तियां हैं। एकमेव आत्मा के रूप में वे यहाँ सर्वव्यापक हैं; मनुष्य और पशु में, वस्तु और विषय में तथा प्रकृति की प्रत्येक शक्ति में सम और निर्व्यक्ति रूप से विद्यमान हैं।
वे परम पुरुष हैं और सभी पुरुष उन एक पुरुष के अविनाशी स्फुलिंग हैं। सभी प्राणी अपनी व्यष्टिभूत अध्यात्म-सत्ता में एक ही पुरुष के अविनाशी अंश हैं। वे समस्त व्यक्त जगत के शाश्वत प्रभु हैं सब लोकों तथा उनके सब प्राणियों के ईश हैं। सभी कर्मों के सर्वशक्तिमान प्रवर्तक हैं, ऐसे प्रवर्तक जो अपने कर्मों से बंधते नहीं और साथ ही समस्त कर्म, तप और यज्ञ उनहीं को पहुँचते हैं। वे सबमें हैं और सब उनमें हैं; वही यह सब कुछ बने हैं और फिर भी वे इस सबसे ऊपर हैं और अपनी बनायी सृष्टि से बंधे हुए नहीं। वे विश्वातीत भगवान हैं; वे अवतार के रूप में अवतरित होते हैं; अपनी शक्ति के द्वारा वे विभूति में प्रकट हुए हैं; वे प्रत्येक मानव जाति में गुप्त रूप से विराजमान परमेश्वर हैं। जिन देवताओं को मनुष्य पूजते हैं वे सभी उन्हीं एक भगवान के व्यष्टि-भाव विभिन्न नाम और रूप एवं मनोमय शरीर मात्र हैं।
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