गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 23.गीता का सारमर्म
अपिच, उन्हें किसी निर्विकार नीरवता में ही नहीं बल्कि जगत तथा इसके जीवों में और समस्त सत्ता एवं समस्त प्रकृति में भी ढूढ़ करके, बुद्धि, हृदय, संकल्प और प्राण के सभी कार्यों को उनके साथ समग्र एवं उच्चतम एकत्व में उठा ले जाकर मनुष्य एक ही संग आत्मा और ईश्वर के संबंध में अपनी आंतरिक समस्या तथा अपने क्रियाशील मानव जीवन की बाह्य समस्या को हल कर सकता है। भगवान के समान बनकर, भगवान के साथ साधर्म्य लाभ करके वह उस परम अध्यात्म-चेतना के अनंत विस्तार का आंनद ले सकता है जो प्रेम और ज्ञान की भ्रांति कर्मों के द्वारा भी उपलब्ध हो सकती है। अमर एवं मुक्त होकर वह उस उच्चतम स्तर से अपना मानवीय कर्म करता रह सकता है और उसे एक परम एवं सर्वतोमुख दिव्य प्रेम में परिणत कर सकता है,-निःसंदेह यहाँ समस्त कर्म-कलाप, जीवन और यज्ञ का एवं जगत के समस्त प्रयास का अंतिम शिखर एवं मर्म यही है। यह सर्वोच्च संदेश सर्वप्रथम उनके लिये है जिनमें इसका अनुसरण करने की शक्ति विद्यमान है, उन श्रेष्ठ पुरुषों महात्माओं ईश्वर-ज्ञानी ईश्वर-कर्मी ईश्वर-प्रेमी लोगों के लिये है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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