गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 23.गीता का सारमर्म
समस्या यह है कि यह आत्मा अपनी शुद्धावस्था में एक ऐसी चीज प्रतीत होती है जो जीवन की याथार्थताओं से मानसिक चरमादर्शों की अपेक्षा भी अधिक दूर है, जिसे मन अपने निजी रूपों में परिणत नहीं कर सकता, जीवन और कर्म के रूपों में परिणत करना तो दूर रहा। अतएव हम देखते हैं कि चरम निरपेक्ष-अध्यात्मवादी मानसिक सत्ता का खंड़न करते हैं। तथा भौतिक सत्ता की निंदा करते हैं और अपने प्राण और मन में हम जो कुछ हैं उस सबके विलय अर्थात निर्वाण के फलस्वरूप जिस शुद्ध अध्यात्म-सत्ता की सुखद उपलब्धि होती है उसके लिये वे अत्यंत उत्कंठित होते हैं इसे छोड़कर और जो भी आध्यात्मिक पुरुषार्थ किया जाता है वह सब निरपेक्ष तत्त्व के इन कट्टर अनुयायियों की दृष्टि में एक मानसिक तैयारी या समझौता मात्र है, प्राण और मन को यथा संभव अध्यात्ममय बनाने की एक साधना है। और व्यवहार में जो समस्या मनुष्य के मन पर नित्य-निरंतर अत्यधिक दबाव डालती है वह उसकी प्राणिक सत्ता की मांगो, उसके जीवन, आचार और कर्म की समस्या है, अतएव इस तैयार करने वाली साधना की मुख्य प्रवृति चैत्य मन की सहायता से नैतिक मन को अध्यात्ममय बनने की होती है-अथवा यूं कहें कि यह इनके चरम आदर्श की प्रतिष्ठा में इनकी सहायता करने के लिये और आचार-संबंधी धर्म एवं सत्य के नैतिक आदर्श को या प्रेम सहानुभूति और एकत्व के आंतरात्मिक आदर्श को हमारा जीवन जितनी प्रामाणिकता प्रदान करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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