गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 23.गीता का सारमर्म
परंतु मनुष्य की सत्ता एक त्रिविध जाल है, एक ऐसी चीज है जो एक ही साथ गुह्य रूप से भौतिक-प्राणिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक है, और मनुष्य नहीं जानता कि इन चीजों के वास्तविक संबंध क्या हैं जीवन तथा उसकी प्रकृति का वास्तविक सत्य कौन-सा है, उसके भाग्य का आकर्षण किस ओर है उसकी पूर्णता का क्षेत्र कहाँ है। जड़तत्त्व एवं प्राण उसका वास्तविक आधार है, इसीसे वह यात्रा आंरभ करता है और इसीके सहारे स्थित रहता है और यदि वह इस भूतल पर तथा उस देह में जीवित रहना चाहता है तो उसे इस आधार की आवश्यकता को पूरा करना होगा, जड़ और प्राण का विधान है उत्तर-जीवन का नियम संघर्ष का तथा कामना और स्वत्व का नियम, शरीर, प्राण और अहंभाव की स्व-प्रतिष्ठा एवं तृप्ति का नियम। जगत का समस्त बौद्धिक तर्क-वितर्क, समस्त नैतिक आदर्शवाद तथा आध्यात्मिक निरपेक्षतावाद, जो मनुष्य की उच्चतर क्षमताओं की पहुँच के भीतर हैं, हमारे प्राणिक एवं भौतिक आधार की सत्यता और मांग को निर्मूल नहीं कर सकते, न वे मानव-जाति को प्रकृति की अलंघ्य प्रेरणा के वश इसके उद्देश्यों का तथा इसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अनुसरण करने से रोक सकते हैं, और न वे उसे इसकी आवश्यक समस्याओं को मानव-भवितव्यता, मानवहित एवं प्रयास का एक महान एवं उपयुक्त भाग बनाने से ही मना कर सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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