गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 22.परम रहस्य
अब जबकि एक उच्चतर सत्य कर्म की एक महत्तर प्रणाली और भावना उसके समक्ष प्रकट की जा चुकी हैं, फिर भी यदि वह अपने अहंभाव पर दृढ़ रहकर कर्म न करने के व्यर्थ और असंभव निश्चय पर डटा रहे, तो इसके आध्यात्मिक परिणाम पहले की अपेक्षा भी अनंतगुना अनिष्टकारी होंगे। कारण, यह एक मिथ्या निश्चय है एक व्यर्थ परांमुखता है क्योंकि यह केवल एक अस्थायी दुर्बलता से उसके अंतरतम स्वभाव की शक्ति के विधान से एक प्रबल पर अस्थायी रूप में विचलित होने से उत्पन्न हुआ है जो कि उसकी प्रकृति का सच्चा संकल्प और पथ नहीं है यदि वह अब अपने शस्त्रास्त्र फेंक दे तो भी जब वह देखेगा कि युद्ध और संहार उसके बिना भी चल ही रहे हैं उसकी परांमुखता के फलस्वरूप उन सब चीजों की जिनके जीवन बिताया है पराजय हो रही है जिस ध्येय की सेवा के लिये उसका जन्म हुआ था वह अपने नायक की अनुपस्थ्ति या अकर्मण्यता के कारण दुर्बल और पथभ्रांत हो रह है स्वार्थपरायण अधर्म और अन्याय के समर्थकों की विद्वेषपूर्ण और विवेकहीन शक्ति के द्वारा पराजित और उत्पीड़ित हो रहा है तो उसे अपनी प्रकृति ही पुनः शस्त्र उठाने के लिये विवश कर देगी। और रणभूमि में इस प्रकार वापिस आने से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होगा। अंहमय मन की धारणाओं और भावनाओ के संक्षोम ने ही उसे इंकार के लिये प्रेरित किया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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