गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 22.परम रहस्य
अपनी संभावनाओं की इस सीमा से, धर्मों के इस अस्तव्यस्त मिश्रण से बाहर निकलने का जो सर्वप्रथम द्वारा हमें दिखायी देता है वह है निर्व्यक्तिकता की और एक प्रकार की उच्च प्रवृत्ति जो बृहत, विश्वव्यापी, शांत, मुक्त, सत्य और शुद्ध सत्ता इस समय अहं के परिसीमक मन के कारण छुपी हुई है उसकी ओर अंतमुर्ख गति। कठिनाई यह है कि जहाँ अपनी सत्ता की शांति और नीरवता के क्षेत्रों में हम इस निर्व्यक्तिकता के अंदर प्रत्यक्ष मुक्ति अनुभव कर सकते हैं, वहाँ निर्व्यक्तिकता कर्म की अवस्था उपलब्ध करना किसी प्रकार भी इतना सहज नहीं। जब तक हम अभी अपने साधारण मन में ही वास करते हैं तब तक यदि हम निर्व्यक्तिक सत्य का अनुसरण करें तो वह हमारे इस मन के स्वाभाविक एवं अपरिहार्य धर्म-हमारे व्यक्तित्व के धर्म, हमारी प्राणिक प्रकृति के सूक्ष्म आवेग और अहंता के रंग- के द्वारा कलुषित ही हो जाता है निर्व्यक्तिक सत्य का अनुसरण इन प्रभावों के द्वारा एक संदेहातीत आवरण में परिणत हो जाता है जिसकी ओट में हमारी बौद्धिक अभिरुचियां आश्रय प्राप्त करती हैं और फिर वे हमारे मन की संकीर्णकारी आग्रह-शीलता के द्वारा संपुष्ट होती रहती हैं। निःस्वार्थ एवं निर्व्यक्तिक कर्म का अनुसरण हमारे वैयक्तिक संकल्प के स्वार्थपूर्ण चुनावों और अंध स्वेच्छाचारी आग्रहों के लिये एक महत्तर प्रमाणिकता एवं प्रत्यक्ष उच्च अनुमति का रूप धारण कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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