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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
21.परम रहस्य की ओर
हमारे कर्म तब सीधे अंतरस्थ आत्मा और भगवान से प्रादुर्भूत होते हैं, अविभाज्य विश्व-कर्म का एक अंग होते हैं, हमारे द्वारा नहीं, बल्कि एक बृहत परात्पर शक्ति के द्वारा प्रवर्तित और संपादित होते हैं। तब जो कुछ भी हम करते हैं वह सब सर्वभूतो के हृदय में आसीन प्रभु के लिये, व्यक्ति में अवस्थित परमेश्वर के लिये और हमारे अंदर उनके संकल्प की सिद्धि के लिये, जगत में विद्यमान भगवान के लिये,सर्वभूतो के कल्याण के लिये, जगत-कर्म और जगदुद्देश्य की परिपूर्ति के लिये, या एक शब्द में पुरुषोत्तम के लिये किया जाता है और वास्तव में वह सब अपनी विश्व-शक्ति के द्वारा वे स्वयं ही करते हैं। इन दिव्य कर्मों का बाह्य रूप-रूवरूप कुछ भी क्यों न हो फिर भी ये हमें बांध नहीं सकते, वरंच, ये इस निम्नतर त्रिगुणमयी प्रकृति से परम, दिव्य एवं आध्यात्मिक प्रकति की पूर्णता की ओर उठने का एक शक्तिशाली उपाय है। इन मिश्रित एवं संकीर्ण धर्मों से मुक्त होकर हम उस अमृत धर्म में पहुच जाते हैं जो हमपर तव प्रकट होता है जब हम अपने समस्त चैतन्य और कर्मों में अपने को पुरुषोत्तम के साथ एकमय कर लेते हैं। यहाँ हम जो एकत्व लाभ करते हैं वह वहाँ काल से परे अमृतत्त्व में उठ जाने की शक्ति अपने संग ले आता है। वहाँ हम उनके नित्य परात्पर पद में निवास करते हैं।
इस प्रकार यदि दन आठ श्लोकों को श्रीगुरु के द्वारा पहले प्रदान किये हुए ज्ञान के प्रकाश में ध्यान से पढ़ा जाये तो ये गीता के संपूर्ण योग का समस्त मूल विचार, समग्र केंद्रिय पद्धति और निखिल सार-तत्त्व संक्षेप के साथ, पर व्यापक रूप में प्रस्तुत करते हैं।
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