गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 21.परम रहस्य की ओर
ये दोनों ही मार्ग हमें मनुष्य की निम्न अज्ञानमयी सामान्य प्रकृति से उबारकर शुद्ध अध्यात्म-चेतना की ओर ले जाते हैं। और इतने अंश में इन दोनों को युक्तिसंगत और यहाँ तक कि सारतः एक ही मानना होगाः परंतु जहाँ एक रूक जाता है और पीछे हट आता है, वहाँ दूसरा एक स्थिर सूक्ष्म दृष्टि तथा उच्च साहस के साथ आगे बढ़ता है, अविज्ञात प्रदेशों का द्वार खोल देता है, मनुष्य को परमेश्वर के अंदर पूर्ण बनाता है और आत्मा के अंदर जीव और प्रकृति का ऐक्य एवं सामंजस्य साधित करता है। और इसलिये इनमें से पहले पांच श्लोकों में गीता अपना कथन ऐसी भाषा में प्रस्तुत करती है कि वह आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के संन्यास के मार्गों पर घट सकता है और फिर भी वह उसे ऐसी शैली में उपस्थित करती है कि उसमें से गीता के द्वारा समर्थित पद्धति का अर्थ और भाव निकालने के लिये हमें केवल उन दोनों मार्गों के कुछ सामान्य शब्दों को एक गभीरतर तथा अधिक अंतरीय अर्थ देना पड़ता है। मानव-कर्म की कठिनाई यह है कि मनुष्य की अंतरात्मा और प्रकृति, सांघातिक रूप से, अनेक प्रकार के बंधनों के अधीन के प्रतीत होती है। वे बंधन है। अज्ञान की कारा, अहंकार का पाश, वासनाओं की श्रृंखला, तत्तत् क्षण के जीवन का आघातकारी आग्रह और अंधकारवृत एवं परिसीमित चक्र जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं कर्म के इस चक्र में बधे हुए जीव को कोई स्वाधीनता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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