गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 18.त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म
वह कर्म उस दक्षिणा के बिना संपन्न किया जायेगा जो कि यज्ञीय कर्म के पुरोहितों को देने योग्य एक अत्यावश्यक दान या आत्मदान है, भले ही वह अपने कर्म के किसी बाह्य मार्गदर्शक एवं सहायक को दिया जाये या अपने अंदर विद्यमान प्रच्छन्न या व्यक्त भगवान को। वह बिना मंत्र के अर्थात बिना समर्पणात्मक विचार के किया जायेगा। मंत्र हमारे उस संकल्प तथा ज्ञान की पावन देह है जो हमारे यज्ञ के उपास्य देवों की ओर ऊपर उठे होते हैं। तामसिक मनुष्य अपना यज्ञ देवताओं को नहीं, बल्कि निम्न आधिभौतिक शक्तियों को या पर्दे के पीछे अवस्थित उन स्थूलतर प्रेतात्माओं को अर्पित करता है जो उसके कार्यों के द्वारा अपना भोग-साधन करते हैं तथा उसके जीवन को अपने अंधकार के द्वारा आच्छन्न कर देते हैं। राजसिक मनुष्य अपना यज्ञ निम्न कोटि के देवताओं या विकृत शक्तियों यक्षों, ऐश्वर्य के रक्षकों, या आसुरी एवं राक्षसी शक्तियों के उद्देश्य से करता है। उसका यज्ञ बाहर से शास्त्र के अनुसार अनुष्ठित हो सकता है, पर उस यज्ञ का प्रेरक भाव होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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