गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 15.तीन पुरुष
प्राचीन ऋषियों ने इस बात को अनुभव कर लिया था। अतएव, वे मोक्ष की प्राप्ति के लिये निवृत्ति या कर्म की मूल प्रेरणा के निरोध के मार्ग का अनुसरण करते थे और इस मार्ग की पराकाष्ठा है स्वयं जन्म का ही निरोध तथा सनातन की सर्वोच्च विश्वातीत भूमिका में परात्पर पद की प्राप्ति। परंतु इसके लिये अनासक्ति के प्रबल खडग से कामना की इन सुदृढ़ जड़ों को काटना और फिर उस परम लक्ष्य की खोज करना आवश्यक है जहाँ से, एक बार वहाँ पहुँच जाने के बाद, पुनः मत्यं जीवन में लौटना नहीं पड़ता। इस निम्नतर माया के व्यामोह से मुक्त होना, अहं से रहित होना, आसक्ति के महान दोष को जीतना, सब कामनाओं को शांत करना, हर्ष-शोक के द्वंद्व को दूर हटा देना, सदैव शुद्ध अध्यात्म-चेतना में प्रतिष्ठित रहना-यही उन परम अनंत की ओर जाने वाली पथ के सोपान हैं। वहाँ हमें उस कालातीत सत्ता की उपलब्धि होती है जो सूर्य, चन्द्र या अग्नि के द्वारा प्रकाशमान नहीं होती, बल्कि जो स्वयं ही सनातन पुरुष की उपस्थिति की ज्योति है। वेदांत के एक श्लोक में कहा गया है कि मैं केवल उन आद्य जगदात्मा को ही खोजने तथा महान पथ पर उन्हें प्राप्त करने के लिये इधर से फिरकर उनकी ओर अभिमुख होता हूँ। वह पुरुषोत्तम का परम पद है, उनकी विश्वातीत सत्ता है। परंतु ऐसा प्रतीत होगा कि यह परम पद संन्यासमार्गीय निवृत्ति के द्वारा सम्यक रूप से, यहाँ तक कि सर्वोत्तम रीति से, विशिष्ट और साक्षात रूप से, प्राप्त किया जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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