गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 15.तीन पुरुष
वे क्षर में विद्यमान ईश्वर हैं, केवल वहीं नहीं, बल्कि यहाँ प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान पुरुषोत्तम हैं, ईश्वर हैं। और वहाँ अपने नित्य परम पद, में भी परमेश्वर हैं, विविक्त और संबंधरहित अनिर्द्देश्य नहीं बल्कि जीव और जगत के उद्गम माता पिता आदि मूल तथा नित्य आश्रय है, सर्वभूतों के स्वामी तथा यज्ञ और तप के भोक्ता हैं। उन्हें अक्षर और क्षर दोनों रूपों में एक साथ जानकर, उन अजन्मा के रूप में जानकर जो प्राणिमात्र के जन्म में अपने को अंशतः प्रकट करते हैं और यहाँ तक कि स्वयं भी शाश्वत अवतार के रूप में अवतीर्ण होते हैं, उन्हें उनके समग्रं रूप में, जानकर ही जीव निम्नतर प्रकृति के बाह्य रूपों से सुगमतया मुक्त हो सकता है तथा एक बृहत आकस्मिक विकास एवं विशाल अपरिमेय आरोहण के द्वारा दिव्य सत् और पराप्रकृति में लौट सकता है। क्योंकि क्षर का सत्य भी पुरुषोत्तम का सत्य है। पुरुषोत्तम प्रत्येक प्राणी के हृदय में हैं और अपनी अगणित विभूतियों में प्रकट हुए हैं पुरुषोत्तम काल के अंदर विश्वात्मा हैं और वही मुक्त मानव आत्मा को दिव्य कर्म का आदेश देते हैं। वे अक्षर और क्षर दोनों हैं, और फिर भी वे इनसे भिन्न हैं, क्योंकि वे इन विपरीत रूपों में से प्रत्येक से अधिक और महत्तर हैं। उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत:। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर:। ‘‘परंतु वे उत्तम पुरुष इन दोनों से भिन्न हैं, वे परमात्मा के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे अव्यय ईश्वर हैं और तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर उन्हें धारण करते हैं।”[1] यह श्लोक हमारी सत्ता के इन दो आपात-विरोधी पक्षों के गीताकृत समन्वय की कुंजी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 15.17
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