गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 414

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य


और तुम ज्ञान को आवर्त करके भूल-भ्रांति एवं अकर्मरूपी प्रमाद में आशक्त कर देता है अथवा, ‘‘सत्त्व ज्ञान तथा सुख के प्रति आशक्ति के द्वारा बांधता है, रज देहधारी आत्मा को कर्मासक्ति के द्वारा बांधता है और तम प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।”[1] दूसरे शब्दों में जीव गुणों तथा उनके परिणामों के उपभोग के प्रति आशक्ति के द्वारा अपनी चेतना को प्रकृति में मन-प्राण-शरीर के निम्नतर एवं बाह्य व्यापार पर केंद्रित करता है, इन वस्तुओं के दृश्य रूप के अंदर अपने को कैद कर देता है और (अपनी स्थूल सत्ता के) पीछे की ओर आत्मा के अदंर अवस्थित अपनी महत्तर चेतना को भूल जाता है, मोक्षसाधक ‘पुरुष' की स्वतंत्र शक्ति एवं क्षेत्र से अनभिज्ञ रहता है। अतः यह स्पष्ट है कि मुक्ति और पूर्णता लाभ करने के लिये हमें इन चीजों से पीछे हटना होगा, गुणों से विलग होकर उनके ऊपर उठना होगा और प्रकृति के ऊपर अधिष्ठित उस मुक्त अध्यात्म-चेतना की शक्ति को पुनः प्राप्त करना होगा। परंतु इसका अर्थ तो समस्त कर्म का निरोध करना प्रतीत होगा, क्योंकि समस्त प्राकृत कर्म गुणों के द्वारा संपन्न होता है, अर्थात प्रकृति ही गुणों के द्वारा समस्त कार्य करती है।

जीव अपने-आप कर्म नहीं कर सकता, वह तो प्रकृति तथा उसके गुणों के द्वारा ही कर्म कर सकता है। परंतु गीता, गुणों के बंधन से मुक्त की मांग करती हुई भी, कर्म को आवश्यकता पर बार-बार बल देती है। यहीं फलत्याग पर उसके आग्रह का महत्त्व प्रकट होता है; क्योंकि फलों की कामना ही जीव के बंधन का अत्यंत सबल कारण है और इसका त्याग करके जीव कर्म में बंधनमुक्त हो सकता है। तामसिक कर्म का परिणाम होता है अज्ञान, राजसिक कार्यों का परिणाम होता है दुःख-प्रतिक्रिया निराशा, असंतुष्टि या नश्वरता का दुःख,-और अतएव ऐसे कर्म के फलों के प्रति आशक्ति में कुछ लाभ नहीं क्योंकि इन फलों के साथ ये अनिष्ट सहचारी परिणाम जुड़े ही रहते हैं। उधर, ठीक प्रकार से किये गये कर्मों का फल शुद्ध और सात्त्विक होता है, उनका आंतरिक परिणाम होता है ज्ञान और सुख। परंतु इन सुखमय फलों के प्रति होने वाली आशक्ति को भी पूर्ण रूप से त्यागना होगा, प्रथम तो इसे इस कारण त्यागना होगा कि मन के अंदर ये फल सीमाबद्ध तथा सीमाकारी रूप हैं और दूसरे इस कारण कि इनका स्थायित्व सदैव अनिश्चित है क्योंकि सत्त्व निरंतर रज और तम के द्वारा जकड़ा और घिरा रहता है तथा ये उसे किसी भी क्षण अभिभूत कर सकते हैं। परंतु, यदि कोई फल की सब प्रकार की आशक्ति से मुक्त भी हो, तो स्वयं कर्म के प्रति-अर्थात मूल राजसिक बंधन रूप-हो सकती है, या प्रकृति की प्रेरणा के प्रति हमारी जड़ एवं शिथिल अधीनता के कारण, वह तामसिक हो सकती है, अथवा वह क्रियामाण कर्म के प्रलोभन औचित्य की खातिर भी हो सकती है जो कि पुण्यत्मा या ज्ञानवान मनुष्य को वश में करने वाला सात्त्विक आशक्ति जनक कारण हैं और स्पष्ट ही इसका उपाय हमें गीता के उस दूसरे उपदेश में मिलता है जिसमें कहा गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 114.6- 8

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खंड-2
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14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
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17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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