गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 14.त्रैगुणातीत्य
जीव अपने-आप कर्म नहीं कर सकता, वह तो प्रकृति तथा उसके गुणों के द्वारा ही कर्म कर सकता है। परंतु गीता, गुणों के बंधन से मुक्त की मांग करती हुई भी, कर्म को आवश्यकता पर बार-बार बल देती है। यहीं फलत्याग पर उसके आग्रह का महत्त्व प्रकट होता है; क्योंकि फलों की कामना ही जीव के बंधन का अत्यंत सबल कारण है और इसका त्याग करके जीव कर्म में बंधनमुक्त हो सकता है। तामसिक कर्म का परिणाम होता है अज्ञान, राजसिक कार्यों का परिणाम होता है दुःख-प्रतिक्रिया निराशा, असंतुष्टि या नश्वरता का दुःख,-और अतएव ऐसे कर्म के फलों के प्रति आशक्ति में कुछ लाभ नहीं क्योंकि इन फलों के साथ ये अनिष्ट सहचारी परिणाम जुड़े ही रहते हैं। उधर, ठीक प्रकार से किये गये कर्मों का फल शुद्ध और सात्त्विक होता है, उनका आंतरिक परिणाम होता है ज्ञान और सुख। परंतु इन सुखमय फलों के प्रति होने वाली आशक्ति को भी पूर्ण रूप से त्यागना होगा, प्रथम तो इसे इस कारण त्यागना होगा कि मन के अंदर ये फल सीमाबद्ध तथा सीमाकारी रूप हैं और दूसरे इस कारण कि इनका स्थायित्व सदैव अनिश्चित है क्योंकि सत्त्व निरंतर रज और तम के द्वारा जकड़ा और घिरा रहता है तथा ये उसे किसी भी क्षण अभिभूत कर सकते हैं। परंतु, यदि कोई फल की सब प्रकार की आशक्ति से मुक्त भी हो, तो स्वयं कर्म के प्रति-अर्थात मूल राजसिक बंधन रूप-हो सकती है, या प्रकृति की प्रेरणा के प्रति हमारी जड़ एवं शिथिल अधीनता के कारण, वह तामसिक हो सकती है, अथवा वह क्रियामाण कर्म के प्रलोभन औचित्य की खातिर भी हो सकती है जो कि पुण्यत्मा या ज्ञानवान मनुष्य को वश में करने वाला सात्त्विक आशक्ति जनक कारण हैं और स्पष्ट ही इसका उपाय हमें गीता के उस दूसरे उपदेश में मिलता है जिसमें कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 114.6- 8
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