गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य
किंतु यह तो ऊर्जा के बाह्य व्यापार की परिभाषा में इनका प्रतीयमान रूपमात्र हुआ। पर यदि हम चेतना और शक्ति को ‘एक सत्’ के ऐसे युग्म रूप मानें जो सत्ता के सत्तत्त्व में सदैव एक साथ रहते हैं तो बात बिलकुल और ही दिखायी देगी, भले ही जड़-प्रकृति के प्रारंभिक बाह्य प्रपंच में चेतना का प्रकाश निर्ज्ञान एवं अनुज्ज्वल ऊर्जा के विराट् व्यापार में तिरोहित होता प्रतीत हो और, उधर, आध्यात्मिक निश्चलता के विपरीत छोर पर शक्ति का व्यापार निरीक्षण करने वाली या साक्षिभूत चेतना की निस्तब्धता में विलीन होता दीख पड़े। ये दो अवस्थाएं आपाततः पृथग्भूत पुरुष और प्रकृति के दो छोर हैं, किंतु इनमें से प्रत्येक अपने चरम बिंदु पर अपने सनातन सहचर को विनष्ट नहीं करता, बल्कि अधिक-से-अधिक, उसे अपनी, उसे अपनी सत्ता की विशिष्ट धारा की गहराइयों में छिपा भर देता है। सुतरां, क्योंकि निश्चेतन दीखने वाली शक्ति में भी चेतना सदा उपस्थित रहती है, हमें इन तीन गुणों की उस अनुरूप चेतनागत ऊर्जा का पता लगाना होगा जो इनके अधिक बाह्य कार्य-व्यापार को अनुप्राणित करती है। अपने चेतनागत रूप की और से इन तीन गुणों की परिभाषा यूं की जा सकती है कि तमस् प्रकृति की निर्ज्ञान की शक्ति है, रजस् उसकी कामना और प्रेरणा से आलोकित क्रियाशील अन्वेषी अज्ञान की शक्ति है, सत्त्व उसके अधिकृत और समन्वित करने वाले ज्ञान की शक्ति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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