गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द5.कुरुक्षेत्र
यह चाहे जैसा हो, पर इसमें संदेह नहीं कि यहाँ संहार के बिना कोई निर्माण-कार्य नहीं होता, अनेकविध वास्तव और संभावित बेसुरेपन को जीतकर परस्पर-विरोधी शक्तियों का संतुलन किये बिना कोई सामंजस्य नहीं होता; इतान ही नहीं, बल्कि जब तक हम निरन्तर हम अपने आपको ही न खाते रहें और दूसरों के जीवन को न निगलते रहें तब तक इस जीवन का निरवच्छिन्न अस्तित्व भी नहीं रहता। हमारा शारिरीक जीवन भी ऐसा ही है जिसमें हमें बराबर मरना और मरकर जीना पड़ता है, हमारा अपना शरीर भी फौजों से घिरे हुए एक नगर जैसा है, आक्रमणकारी फौजें इस पर आक्रमण करती और संरक्षणकारी इसका संरक्षण करती हैं और इन फौजों का काम एक-दूसरे को खा जाना है और यह तो हमारे सारे जीवन का केवल एक नमूना ही है। सृष्टि के आरंभ से ही मानो यह आदेश चला आया है कि, “तू तब तक विजयी नहीं हो सकता जब तक अपने साथियों से और अपनी परिस्थिति से युद्ध न करेगा; बिना युद्ध किये, बिना संघर्ष किये और बिना दूसरों के अपने अंदर हजम किये तू जी भी नहीं सकता। इस जगत् का जो पहला नियम मैंने बनाया वह संहार के द्वारा ही सर्जन और संरक्षण का नियम है।“ प्राचीन शास्त्रकारों ने जगत् का सूक्ष्म निरीक्षण कर जो कुछ देखा उसके फलस्वरूप उन्होंने इस आरंभिक विचार को स्वीकार किया। अति प्राचीन उपनिषदों ने इस बात को बहुत ही स्पष्ट रूप से देखा और इसका बड़े साफ और जोरदार शब्दों में वर्णन किया। ये उपनिषदें सत्य के संबंध में किसी चिकनी-चुपड़ी बात को या किसी आशावादी मतमतांतर को सुनना भी नहीं पसंद करतीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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