गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
11.विश्वपुरुष–दर्शन
अपनी अन्यून प्रभा से युक्त अनंत उपस्थिति सीमित, व्यष्टिरूप तथा प्रकृतिगत मनुष्य की पृथक्त्वमूलक क्षुद्रता के लिये अतीव अभिभूतकारी होगी। एक जोड़ने वाली कड़ी की जरूरत है जिसके द्वारा वह इन विराट परमेश्वर को अपनी वैयक्तिक एवं प्राकृतिक सत्ता में, अपने समीप स्थित देख सके, केवल इस रूप में नहीं कि उसकी संपूर्ण सत्ता को अपनी विश्वव्यापी अपरिमेय शक्ति के द्वारा नियंत्रित करने के लिये वे सर्वशक्तिमान रूप में उपस्थित हैं, बल्कि घनिष्ठ वैयक्तिक सबंध के द्वारा उसे आश्रय देने तथा एकत्व की ओर उठा ले जाने के लिये मानव रूप में भी मूर्तिमंत हैं। जिस उपासना के द्वारा सांत प्राणी अनंत के सामने नमन करता है वह उस समय अपना समस्त माधुर्य प्राप्त कर लेती है तथा सख्य और एकत्व के घनिष्ठतम सत्य के निकट पहुँच जाती है जब वह गभीर होकर उस अधिक घनिष्ठ उपासना का रूप धारण कर लेती है जो ईश्वर के पितृभाव एवं सख्य-भाव में तथा परमात्मा और हमारी मानव आत्मा एवं प्रकृति के बीच होने वाले आकर्षक प्रेम के भाव में निवास करती है। क्योंकि, भगवान् मानव-आत्मा और देह में वास करते हैं; वे मानव-मन तथा आकार को अपने चारों ओर विरचित करते तथा वस्त्र की न्याईं धारण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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