गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
राष्ट्र के राष्ट्र, अदम्य वेग के साथ, इनके ज्वालामय मुखों के अंदर उसी प्रकार संहार की ओर भागे चले जा रहे हैं जेसे अनेकानेक नदियों की वेगवती धाराएं समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं या जैसे पतंगे प्रदीप्त अग्नि-शिखा पर टूट-टूटकर पड़ते हैं। उन प्रज्जवलित मुखों से वह उग्ररूप दसों दिशाओं को ग्रसे जा रहा है; संपूर्ण जगत उनकी संदीप्त तेजराशि से परिपूर्ण है तथा उनकी अग्र प्रभाओं में प्राप्त हो रहा है। जगत् और उसके राष्ट्र संहार के भय से कंपित तथा व्यथित हो रहे हैं और अपने चारों ओर फैले हुए दुःख-कष्ट और महाभय के बीच अर्जुन भी दुःखित और भयभीत हो रहा है; उसकी अंतरात्मा दुःखित और व्यथित हो रही है और वह शांति या प्रसन्नता नहीं अनुभव कर रहा है। वह उन रौद्र परमेश्वर से कहता है, ‘‘कृपा करके बताइये कि आप कौंन हैं, आप जो कि इस उग्र रूप को धारण करते हैं। हे देववर, आपको प्रणाम हो, आप प्रसन्न होइये। मैं जानना चाहता हूँ कि आप, जो कि आदि काल से चले आ रहे हैं, वे आप कौंन हैं, क्योंकि मैं आपकी कार्य-प्रवृत्ति के संकल्प को नहीं जानता।’’[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.31
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