गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 279

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर


क्योंकि सतत अविचल योगाभ्यास के द्वारा अनन्यचित होकर निरंतर परम पुरुष भगवान् का चिंतन करने से जीव उन्हींको प्राप्त होता है।”[1] यहीं उन परम पुरुष भगवान् का सर्वप्रथम वर्णन आता है जो अक्षर ब्रह्म से भी उत्तम और महान् हैं और जिन्हें गीता आगे चलकर पुरुषोत्तम नाम प्रदान करती है। ये भगवान् भी अपनी कालातीत सनातन सत्ता में अक्षर हैं और यहाँ जो कुछ व्यक्त है। उसके अतीत हैं और इस काल के अंदर उन ‘‘अव्यक्त अक्षर” की केवल कुछ झाकियां उनके विविध प्रतीकों और प्रच्छन्न वेशों द्वारा प्राप्त हुआ करती हैं। फिर भी वे केवल अलक्षणम् अनिर्द्देश्यम् नहीं हैं; या यह कहिये कि वे अनिर्द्देश्य केवल इसलिये हैं कि मनुष्य की बुद्धि जिसे अंत्यत सूक्ष्म अणु-परमाणु जानती है वे उससे भी अधिक सूक्ष्म हैं और इसलिये भी उनका स्वरूप हमारे चितंन के परे है इसलिये कि गीता उन्हें अणोरणीयांसम, अचिन्त्यरूपम् कहती है। ये परम पुरुष परमात्मा ‘‘कवि” अर्थात दृष्टा हैं, ‘पुराण’ हैं- किसी भी काल से पुरातन हैं और अपनी सनातन आत्मदृष्टि और ज्ञान में ही स्थित रहते हुए सब भूतों के अनुशासित तथा अपनी सत्ता में सबको यथास्थान रखने वाले ‘‘धाता” कविं पुराणम् अनुशासितारं सर्वस्य धातरम् हैं।[2]

ये परम पुरुष वही अक्षर ब्रह्म हैं जिसकी बात वेदविद् कहा करते हैं, ये ही ‘वह हैं जिनमें तपस्वी लोग वीतराग होकर प्रवेश करते और जिनके लिये ब्रह्मचर्य-पालन करते हैं।[3] वही सनातन सत्ता परम (सर्वोच्च) पद है; इसलिये वही जीव की कालाविच्छिन्न गति का परम लक्ष्य है, किंतु, यह स्वयं गतिरूप नहीं, यह एक आदि, सनातन, परम अवस्था या स्थान, परम् स्थानम् आद्यम् है। गीता योगी की उस अंतिम मनोवस्था का वर्णन करती है जिसमें वह मृत्यु के द्वारा जीवन से निकलकर उस परम भागवत सत्ता को प्राप्त होता है। उसका मन अचल होता है, वह योगबल से और भक्ति से भगवान् के साथ युक्त होता है-यहाँ ज्ञान के द्वारा निर्गुण निराकार के साथ एकत्व ने भक्ति के द्वारा भगवान् से युक्त होने की बात को पीछे नहीं छोड़ दिया है, बल्कि यह भक्तियोग अंततक परम योगशक्ति का एक अंग बना रहता है-उसका प्राण सर्वथा ऊपर चढ़ा हुआ भू्रमध्य में आत्म-दर्शन के आसन पर सम्यक् रूप से स्थित रहता है। इन्द्रियों के सब द्वार बंद रहते हैं, मन हृदय में निरुद्ध हो जाता है, प्राण अपनी विविध गतियों से हटकर मस्तक में आ जाता है, बुद्धि प्रणव के उच्चारण में तथा उसी सारी भावना परम पुरुष परमेश्वर के चिंतन में एकाग्र होती है। यही प्रयाण की परंपरागत योग-पद्धति है, सनातन ब्रह्म परम पुरुष परमेश्वर के प्रति योगी की संपूर्ण सत्ता का यह सर्वात्मसमर्पण है। फिर भी यह केवल एक पद्धति है, मुख्य बात जीवन में, कर्म और युद्ध तक में-भगवान् का निरंतर अचल मन से स्मरण करना और संपूर्ण जीवन को ‘‘नित्ययोग” बना देना है। जो कोई ऐसा करता है, भगवान् कहते हैं कि, वह मुझे अनायास पा लेता है, वही महात्मा है, वही परम सिद्धि लाभ करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 8.7-8
  2. 8.9
  3. ये शब्द उपनिषदों से ज्यों के त्यों लिये गये हैं।

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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