गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
क्योंकि सतत अविचल योगाभ्यास के द्वारा अनन्यचित होकर निरंतर परम पुरुष भगवान् का चिंतन करने से जीव उन्हींको प्राप्त होता है।”[1] यहीं उन परम पुरुष भगवान् का सर्वप्रथम वर्णन आता है जो अक्षर ब्रह्म से भी उत्तम और महान् हैं और जिन्हें गीता आगे चलकर पुरुषोत्तम नाम प्रदान करती है। ये भगवान् भी अपनी कालातीत सनातन सत्ता में अक्षर हैं और यहाँ जो कुछ व्यक्त है। उसके अतीत हैं और इस काल के अंदर उन ‘‘अव्यक्त अक्षर” की केवल कुछ झाकियां उनके विविध प्रतीकों और प्रच्छन्न वेशों द्वारा प्राप्त हुआ करती हैं। फिर भी वे केवल अलक्षणम् अनिर्द्देश्यम् नहीं हैं; या यह कहिये कि वे अनिर्द्देश्य केवल इसलिये हैं कि मनुष्य की बुद्धि जिसे अंत्यत सूक्ष्म अणु-परमाणु जानती है वे उससे भी अधिक सूक्ष्म हैं और इसलिये भी उनका स्वरूप हमारे चितंन के परे है इसलिये कि गीता उन्हें अणोरणीयांसम, अचिन्त्यरूपम् कहती है। ये परम पुरुष परमात्मा ‘‘कवि” अर्थात दृष्टा हैं, ‘पुराण’ हैं- किसी भी काल से पुरातन हैं और अपनी सनातन आत्मदृष्टि और ज्ञान में ही स्थित रहते हुए सब भूतों के अनुशासित तथा अपनी सत्ता में सबको यथास्थान रखने वाले ‘‘धाता” कविं पुराणम् अनुशासितारं सर्वस्य धातरम् हैं।[2] ये परम पुरुष वही अक्षर ब्रह्म हैं जिसकी बात वेदविद् कहा करते हैं, ये ही ‘वह हैं जिनमें तपस्वी लोग वीतराग होकर प्रवेश करते और जिनके लिये ब्रह्मचर्य-पालन करते हैं।[3] वही सनातन सत्ता परम (सर्वोच्च) पद है; इसलिये वही जीव की कालाविच्छिन्न गति का परम लक्ष्य है, किंतु, यह स्वयं गतिरूप नहीं, यह एक आदि, सनातन, परम अवस्था या स्थान, परम् स्थानम् आद्यम् है। गीता योगी की उस अंतिम मनोवस्था का वर्णन करती है जिसमें वह मृत्यु के द्वारा जीवन से निकलकर उस परम भागवत सत्ता को प्राप्त होता है। उसका मन अचल होता है, वह योगबल से और भक्ति से भगवान् के साथ युक्त होता है-यहाँ ज्ञान के द्वारा निर्गुण निराकार के साथ एकत्व ने भक्ति के द्वारा भगवान् से युक्त होने की बात को पीछे नहीं छोड़ दिया है, बल्कि यह भक्तियोग अंततक परम योगशक्ति का एक अंग बना रहता है-उसका प्राण सर्वथा ऊपर चढ़ा हुआ भू्रमध्य में आत्म-दर्शन के आसन पर सम्यक् रूप से स्थित रहता है। इन्द्रियों के सब द्वार बंद रहते हैं, मन हृदय में निरुद्ध हो जाता है, प्राण अपनी विविध गतियों से हटकर मस्तक में आ जाता है, बुद्धि प्रणव के उच्चारण में तथा उसी सारी भावना परम पुरुष परमेश्वर के चिंतन में एकाग्र होती है। यही प्रयाण की परंपरागत योग-पद्धति है, सनातन ब्रह्म परम पुरुष परमेश्वर के प्रति योगी की संपूर्ण सत्ता का यह सर्वात्मसमर्पण है। फिर भी यह केवल एक पद्धति है, मुख्य बात जीवन में, कर्म और युद्ध तक में-भगवान् का निरंतर अचल मन से स्मरण करना और संपूर्ण जीवन को ‘‘नित्ययोग” बना देना है। जो कोई ऐसा करता है, भगवान् कहते हैं कि, वह मुझे अनायास पा लेता है, वही महात्मा है, वही परम सिद्धि लाभ करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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