गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द16.भगवान् की अवतरण-प्रणाली
उसका अपना संकल्प और व्यक्तित्व भगवान के संकल्प और उनकी सत्ता में घुल-मिलकर अपना पृथकत्व खो दे-क्योंकि यह भी एक मानी हुई आध्यात्मिक अवस्था है-तो मनव-जीव के अंदर, उसके संपूर्ण व्यक्त्त्वि को अधिकृत करके, भगवान् का ही संकल्प, भगवान की ही सत्ता और शक्ति, उन्हीं के प्रेम प्रकाश और चैतन्य प्रतिबिंबित हो सकते हैं, और यह जरा भी असंभव नहीं है। और, इस प्रकार की अवस्था मनुष्य का केवल आरोहण द्वारा दिव्य जन्म और दिव्य स्वभाव को प्राप्त होना ही नहीं है, बल्कि उसमें दिव्य पुरुष का मानव में अवतरण भी है, यह एक अवतार है। परंतु गीता इसके भी आगे चलती है। वह साफ-साफ कहती है कि भगवान् स्वयं जन्म लेते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे बहुत-से जन्म बीत चुके और अपने शब्दों से यह स्पष्ट करे दते हैं कि वे ग्रहणशील मानव-प्राणी में उतर आने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि भगवान् के ही बहुत-जन्म ग्रहण करने की बात कह रहे हैं क्योंकि यहाँ वे ठीक सृष्टिकर्ता की भाषा में बोल रहे हैं, और इसी भाषा का प्रयोग वे वहाँ करेंगे जहाँ अपनी जगत्-सृष्टि की बात कहेंगे। ‘‘ यद्यपि मैं प्राणियों का अज अविनाशी ईश्वर हूँ तो भी मैं अपनी माया से अपने-आपको सृष्ट करता हूँ ”[1]-अपनी प्रकृति के कार्यों का अधिष्ठान होकर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.6
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