गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 138

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
64. दोनों परस्पर पूरक: कृष्ण-चरित्र के दृष्टांत

24. हरिभक्ति रूपी आर्द्रता अवश्य होनी चाहिए। इसलिए भगवान ने अर्जुन से बार-बार कहा है- मय्यासक्तमनाः पार्थ- "अर्जुन‚ मुझमें आसक्त रह, मुझमें भक्ति रख और फिर कर्म करता रह।" जिस भगवद्गीता को ‘आसक्ति’ शब्द न तो सूझता है‚ न रुचता है‚ जिसने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि अनासक्त रहकर कर्म करो‚ राग-द्वेष छोड़कर कर्म करो‚ निरपेक्ष कर्म करो‚ ‘अनासक्ति’‚ ‘निःसंगता, जिसका ध्रुपद या पालुपद है, वही गीता कहती है- "अर्जुन मुझमें आसक्ति रख।" पर यहाँ याद रखना चाहिए कि भगवान में आसक्ति रखना बड़ी ऊंची बात है। वह किसी पार्थिव वस्तु के प्रति आसक्ति थोड़े ही है। सगुण और निर्गुण‚ दोनों में एक-दूसरे में गुंथे हुए हैं। सगुण निर्गुण का आधार सर्वथा तोड़ नहीं सकता और निर्गुण को सगुण के रस की जरूरत होती है। जो मनुष्य सदैव कर्त्तव्य-कर्म करता है‚ वह उस कर्म द्वारा पूजा ही कर रहा है‚ परंतु पूजा के साथ रस आर्द्रता चाहिए। मामनुस्मर युध्य च- मेरा स्मरण रखते हुए कर्म करो। कर्म स्वयं भी एक पूजा ही है‚ परंतु अंत में भावना सजीव रहनी चाहिए। केवल फूल चढ़ा देना ही पूजा नहीं है। उसमें भावना आवश्यक है। फूल चढ़ाना पूजा का एक प्रकार है‚ सत्कर्मों द्वारा पूजा करना दूसरा प्रकार है‚ परंतु दोनों में भावना रूपी आर्द्रता आवश्यक है। फूल चढ़ा दिये, पर मन में भावना नहीं है, तो वे फूल मानो पत्थर पर ही चढ़े। अतः असली वस्तु भावना है। सगुण और निर्णुण, कर्म और प्रीति, ज्ञान और भक्ति ये सब चीजें एकरूप ही हैं। दोनों का अंतिम अनुभव एक ही है।

25. उद्धव और अर्जुन की मिसाल देखो। रामायण से मैं एकदम महाभारत में आ कूदा। इसका मुझे अधिकार भी है, क्योंकि राम और कृष्ण दोनों एकरूप ही हैं। जैसे भरत और लक्ष्मण, वैसे ही उद्धव और अर्जुन हैं। जहाँ कृष्ण, वहाँ उद्धव होंगे ही। उद्धव को कृष्ण का वियोग क्षण भर भी सहन नहीं होता था। वह सतत कृष्ण की सेवा में निमग्न रहता। कृष्ण के बिना सारा संसार उसे फीका मालूम होता। अर्जुन भी कृष्ण का सखा था, परंतु वह दूर, दिल्ली में रहता था। अर्जुन कृष्ण का काम करने वाला था; परंतु कृष्ण द्वारका में, तो अर्जुन हस्तिनापुर में! ऐसा दोनों का था।


26. जब कृष्ण को देह छोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई, तो उन्होंने उद्धव से कहा- "ऊधो, अब मैं जा रहा हूँ।" उद्धव ने कहा- "मुझे क्या अपने साथ नहीं ले चलेंगे? चलो, हम दोनों साथ ही चलेंगे।" परंतु कृष्ण ने कहा- "यह मुझे पसंद नहीं। सूर्य अपना तेज अग्नि में रखकर जाता है, उसी तरह मैं अपनी ज्योति तुझमें छोड़ जाने वाला हूँ।" इस तरह भगवान ने अंतकालीन व्यवस्था की और उद्धव को ज्ञान देकर रवाना किया। फिर यात्रा में उद्धव को मैत्रेय ऋषि से मालूम हुआ कि भगवान निजधाम को चले गये। उसके मन पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ, मानो कुछ हुआ ही नहीं। मरका गुरु, रडका चेला, दोहींचा बोध वायां गेला- ‘मरियल गुरु, रोवना चेला, दोनों का बोध व्यर्थ गया! ऐसा हाल उसका नहीं था। उसे लगा, मानो वियोग हुआ ही नहीं। उसके जीवन भर सगुण उपासना की थी। वह परमेश्वर के सान्निध्य में ही रहता था। पर अब उसे निर्गण में ही आनंद आने लगा था। इस तरह उसे निगुर्ण की मंजिल तय करनी पड़ी। सगुण पहले, परंतु उसके बाद निर्गुण की सीढ़ी आनी ही चाहिए, नहीं तो परिपूर्णता नहीं होगी।

27. इससे उलटा हाल हुआ अर्जुन का। श्रीकृष्ण ने उसे क्या करने के लिए कहा था? अपने बाद सब स्त्रियों की रक्षा का भार अर्जुन पर सौंपा था। अर्जुन दिल्ली से आया और द्वारका से श्रीकृष्ण के घर की स्त्रियों को लेकर चला। रास्ते में हिसार के पास पंजाब के चोरों ने उसे लूट लिया। जो अर्जुन उस समय एकमात्र नर, उत्कृष्ट वीर के नाम से प्रसिद्ध था; जो पराजय जानता ही नहीं था और इसलिए 'जय' नाम से प्रसिद्ध हो गया था, जिसने प्रत्यक्ष शंकर का सामना किया और उन्हें झुका दिया, वही अजमेर के पास भागते-भागते बचा। कृष्ण के चले जाने का उसके मन पर बड़ा असर हुआ। मानों उसका प्राण ही चला गया और केवल निस्त्राण और निष्प्राण शरीर ही बाकी रह गया। सारांश यह कि सतत कर्म करने वाले, कृष्ण से दूर रहने वाला उपासक अर्जुन को अंत में यह वियोग दुःसह और भारी हो गया। उसका निर्गुण अंत में मुखर हो उठा। उसका सारा कर्म ही मानो समाप्त हो गया। उसके निर्गुण को आखिर सगुण का अनुभव आया। सारांश, सगुण को निर्गुण में जाना पड़ता है और निर्गुण को सगुण में आना पड़ता है। इस तरह दोनों को एक-दूसरे से परिपूर्णता आती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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