गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 137

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
63. दोनों परस्पर पूरक: राम-चरित्र के दृष्टांत

23. आजकल के युवक कहते हैं- "राम का नाम‚ राम की भक्ति‚ राम की उपासना- से सब बातें हमारी समझ में नहीं आतीं। हम तो भगवान का काम करेंगे।" भगवान का काम कैसे करना चाहिए‚ इसका नमूना भरत ने दिखला दिया है। भगवान का काम करके भरत ने वियोग को पचा डाला है। भगवान का काम करते हुए भगवान के वियोग का भान होने के लिए समय न रहना एक बात है और जिसका भगवान से कुछ लेना-देना नहीं‚ उसका बोलना दूसरी बात है। भगवान का कार्य करते हुए संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करना बड़ी दुर्लभ वस्तु है। यद्यपि भरत की यह वृत्ति निर्गुण रूप से काम करने की थी‚ तो भी वहाँ सगुण का आधार टूट नहीं गया था। "प्रभो राम‚ आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। आप जो कहेंगे उसमें मुझे संदेह नहीं होगा" - ऐसा कहकर भरत लौटने लगा तो भी उसने फिर पीछे मुड़कर राम की ओर देखा और कहा- "प्रभो‚ मन को समाधान नहीं होता‚ कुछ-न-कुछ भूला हुआ-सा लगता है।" राम ने तुरंत उसका भाव पहचान लिया और कहा- "ये पादुकाएं ले जाओ।" अंत में सगुण के प्रति आदर रहा ही। निर्गुण को सगुण ने अंत में आर्द्र कर ही दिया। लक्ष्मण को पादुकाएं लेकर समाधान न हुआ होता। उसकी दृष्टि से यह दूध की भूख छाछ से मिटाने जैसा होता। भरत की भूमिका इससे भिन्न थीं। वह बाहर से दूर रहकर कर्म कर रहा था‚ परंतु मन से राममय था। भरत यद्यपि अपने कर्त्तव्य का पालन करने में ही राम-भक्ति मानता था‚ तो भी उसे पादुकाओं की आवश्यकता महसूस हुई। उनके अभाव में वह राजकाज का भार नहीं उठा सकता था। उन पादुकाओं की आज्ञा शिरोधार्य करके वह अपना कर्त्तव्य कर रहा था। लक्ष्मण राम का भक्त था वैसा ही भरत भी था। दोनों की भूमिकाएं बाहर से भिन्न-भिन्न थीं। भरत यद्यपि कर्त्तव्यनिष्ठ था‚ तत्त्वनिष्ठ था‚ तो भी उसकी तत्त्वनिष्ठा को पादुका की आर्द्रता की जरूरत महसूस हुई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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